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209 -लोअपुं [लोक परलोक। (मो.२३) परलोयसुहंकरो। (सू.१४) -वड्ढि स्त्री [वृद्धि] परवृद्धि, दूसरे की वृद्धि । (द.१०) -विग्गह पुंन [विग्रह] परशरीर। (मो.९) -विभवजुद वि [विभवयुक्त] अन्य वैभव से युक्त, उत्कृष्ट वैभव से युक्त। (निय.७) -वस वि [वश] दूसरे के अधीन। (भा.३८) -समय पुं समय] अन्य समय, अन्यमत, मिथ्याविचार। (स.२, प्रव.जे.६) -समयिग पुं [सामयिक] पर समय में अनुरक्त। (प्रव.जे.२) -सहाव पुं [स्वभाव पर स्वभाव, अन्यरूपभाव, अन्य परिणाम। (निय.५०) परंपर/परंपरय पुं न [परम्पर] परम्परा, अविच्छिन्न धारा।
(भा.१२७, द.३३) परंपरा स्त्री परम्परा अविच्छिन्न धारा। (भा.१३५)परंपराभाव
रहिएण। (भा.३४) परंमुह वि [पराङ्मुख] विमुख, विपरीत। (भा.११७) परम वि [परम] उत्कृष्ट, सर्वोत्तम। (प्रव.६२, निय.४, सू.१०) -गुणसहिअ वि [गुणसहित] परमगुणों से सहित। (निय.७१) -जिण पुं [जिन] परम जिन, परमात्मा। (मो.६) -जिणिंद पुं [जिनेन्द्र]परमजिनेन्द्र (निय.१०९)-जिणवरिंद पुं [जिनवरेन्द्र] जिनश्रेष्ठ, प्रधानगणधर। (सू.१०)-जोइ पुं योगिन्] परमयोगी, वीतरागी। (मो.२) -8 वि [अर्थ] परमार्थ, आत्मस्वरूप, आत्मज्ञानस्वरूप। (स.१५१, १५४, निय.३२) परमट्ठवियाणया विति (स.ज.वृ.१२५)-ट्टबाहिर वि [अर्थबाह्य परमार्थ से बाह्य , परमार्थ से रहित। (स.१५३) गाणग वि [ज्ञायक] परम ज्ञायक,
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