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195 घाउ पुं [धातु धातु। पृथ्वी,जल, तेज, और वायु ये चार
धातु महाभूत हैं।धाउचउक्कस्स पुणो। (निय.२५) धादा वि [ध्याता] ध्यान करने वाला। मोहजन्य कलुषता से रहित, पञ्चेन्द्रिय विषयों से विरत, मन को स्थिर कर निज स्वभाव में सम्यक् प्रकार से स्थित व्यक्ति ध्याता कहलाता है। (प्रव.जे.१०४) जो खविदमोहकलुसो, विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता। समवविदो सहावे, सो अप्पाणं हवइ धादा।। धादु पुं [धातु देखो धाउ। (पंचा.७८, द्वा.३५) धार सक [धारय्] धारण करना, रखना। (स.१५३, प्रव.शे.५८, लिं.१४) धारदि (व.प्र.ए.प्रव.जे.५८) (व.प्र.ए.स.१५२) धारंता (व.कृ.स.१५३) धारंतो (व.कृ.लिं.१५) धारण न [धारण] ग्रहण, अवलम्बन, प्रयोग। (स.३०६, भा.२६) धारणा स्त्री [धारणा] धारणा,मति ज्ञान का एक भेद। (आ.भ.९) धाव सक [धात्] दौड़ना। उप्पडदि पडदि धावदि। (लिं.१५) धीर वि [धीर] धीर, धैर्यवान्, सहिष्णु, ज्ञानी। (पंचा.७०, निय.७३, भा.२४, चा.२०) ते धीर-वीरपुरिसा, खमदमखग्गेण विष्फुरतेण। (भा.१५५) धुद वि [धुत] त्यक्त, परित्यक्त, त्याज्य। (नि.भ.२) -किलेस पुं
[क्लेश] दुःख रहित, बाधा रहित। (नि.भ.२) धुव वि [ध्रुव] निश्चल, स्थिर, नित्य, शाश्वत्, स्थायी। (प्रव.२४, मो.६०,बो.१२)धुवमचलमणोवमं पत्ते। (स.१)-त्त वि [त्व]
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