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अखिल वि [अखिल] पूर्ण, परिपूर्ण, समस्त। (पंचा.९०) जं देदि विवरमखिलं। अगणि पु. [अग्नि] अग्नि। (पंचा. ११०,१४६) झाणमओ जायए
अगणी। (प्र. ब.) अगरहा स्त्री [अगर्दा] अनिन्दा, अघृणा। (स.३०७) आचार्य कुन्दकुन्द ने गरहा को विषकुम्भ और अगरहा को अमृतकुम्भ के भेदों में गिनाया हैं। अणियत्तीयअणिंदागरहा सोही अमयकुंभो। अगंध पुं [अगन्ध] गन्धरहित। (पंचा. १२७, स. ४९, निय. ४६,
भा. ६४) अगाढ वि [अगाढ] अगाढ, अनाश्रित। (द्वा.६१) चलमलिनमगाढं। (द्वा. ६१) -त्त वि [अगाढत्व अगाढता, आश्रय से रहित होता हुआ, प्रचण्डता से रहित। (निय. ५२) चलमलिनमगाढत्तं। अगारि वि [अगारिन्] गृहस्थ। (प्रव. चा.५०) अगारी धम्मो सो
सावयाणं से। अगुरु/अगुरुग वि [अगुरु] अतिलघु, छोटा। पंचा. २४,३१,८४) -लहुग वि [लघुक] षड्गुणी-हानिवृद्धिरूप, अगुरुलघुगुण संयुक्त। अगुरुलहुगेहिं सया। (पंचा. :) अग्ध सक [अर्घ] पूजना, आद करना, सम्मान करना । (द.३३)
अग्धेदि (व. प्र. ए.) अग्घेदि सुरासुरे लोए। (द. ३३) अचक्खु पुं न [अचक्षुष्] नेत्र से अतिरिक्त इन्द्रिय और मन (पंचा.४२, निय. १४) चक्खू अचवू ओही। (निय.१४) -जुद
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