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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 141 प्रव. जे.५९, निय.८९, भा.१२३, मो.२०) झादि (व.प्र.ए.निय.८९, पंचा.१४५) झाए (व.प्र.ए.प्रव.जे.६७) झाएइ (व.प्र.ए.निय.१२१,मो.२०)झाएदि (व.प्र.ए.निय.१३३, लिं.५) झायइ (व.प्र.ए.निय.१२०, मो.८४) झायदि। (व.प्र.ए.स.१८८,निय.८३) झायंति (व.प्र.ब.मो.१९) झायंतो (व.कृ.स.१८९,मो.४३) झायब्बो (वि.कृ.मो.६३,६४) झाहि (वि. आ.म.ए.स.४१२) झायहि (वि. आ.म.ए.भा.१२३) झाइज्जइ (कर्म.व.प्र.ए.मो.४)झाइज्जइ परमप्पा। (मो. ७) झाएवि (अप. सं. कृ. मो.७७) झाण पुं न [ध्यान] ध्यान, चिंतन, विचार। (पंचा.१५२, निय.१२९, प्रव. चा. ५६, भा.१२१) आत्मस्वरूप के अवलम्बनमय भाव से जीव समस्त विकल्पों का निराकरण करने में समर्थ होता है इसलिये ध्यान ही सब कुछ है। अप्पसरूवालंवणभावेण दुसव्वभावपरिहारं सक्कदि काउंजीवो, तम्हा झाणं हवे सव्वं। (निय.११९) ध्यान में शुद्धात्मा का ध्यान श्रेष्ठ है। झाणे झाएइ सुद्धप्पाणं। (मो.२०) जो आत्मध्यान करता है। उसे नियम से निर्वाण प्राप्त होता है। अप्पाणं जो झायदि, तस्स दुणियमं हवे णियमा। (निय.१२०)ध्यान के चार भेद हैंआर्तध्यान,रौद्रध्यान,धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार ध्यानों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान श्रेयस्कर नहीं हैं मात्र धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही रत्नत्रय के कारण हैं। (निय.८९)मोक्षपाहुड ७६ में धर्मध्यान के विषय कहा गया है-भरत क्षेत्र में दुःषम नामक For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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