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रत्न | सारं गुणरयणाणं। (भा.१४६) -वंत वि [वन्त] गुणवान्। (प्रव. जे.३) - व्वय न [व्रत] गुणव्रत। (चा.२५) -वादी वि
वादिन] गुणवादी। (द.२३) -विसुद्ध वि [विशुद्ध] गुणों में विशुद्ध। (चा.८)-वित्थर पुं [विस्तार] गुणों का विस्तार (शी.३६) -सण्णिद वि [सन्नित] गुणयुक्त। (स.११२) -समिद्ध वि समृद्ध] गुणों से समृद्ध! (बो.३३) -हीण वि [हीन] गुणों से हीन। (द.२७) को वंदमि गुणहीणो। (द.२७) गुणों (प्र.ए. प्रव.जे.१५,१६)गुणा (प्र.ब.प्रव.जे.४२) गुणं (द्वि.ए.बो.२८) गुणेहि गुणेहिं (तृ.ब.भा.१५४, प्रव.चा.७०) गुणदो गुणादो (पं.ए.प्रव.जे.१२) गुत्त न [गोत्र] 1. गोत्र, कर्मो का एक भेद। (द.३४) तह उत्तमेण
गुत्तेण। (द.३४) 2.वि [गुप्त].प्रच्छन्न, छिपा हुआ, गुप्त गुप्ति विशेष। (मो. ५३, प्रव. चा.३८) गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण । (मो.५३) गुत्ति स्त्री [गुप्ति प्रवृत्ति का निरोध, मन-वचन और काय की चेष्टाओं को रोकना। तिहिं गुतिहिं जो स संजदो होई। (सू.२०) गुत्तीओ (द्वि.ब.स.२७३) गुरव पुं [गुरु] धर्माचार्य, पंचपरमेष्ठी। झाएहि पंच वि गुरवे |
(भा.१२३) गुरवे (द्वि.ब.भा.१२३) गुरु पुं [गुरु], गुरु, भारी, अध्यापक, धर्मोपदेशका (प्रव. चा.२, भा.९१) -पसाअ ' [प्रसाद] गुरु की प्रसन्नता, गुरुकृपा। जो झायव्यो णिच्चं, पाऊण गुरुपसाएण। (भा.६४) -भार पुं भार]
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