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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 106 गरहासोही। (स.३०६) गरहिअ वि [गर्हित] निंदित, घृणित, निंदनीय। सो गरहिउ जिणवयणे। (सू.१९) गरहिउ (अप.प्र.ए.) गरुय वि [गुरुक] गुरु, बड़ा, भारी। (सू.९) गरुयभारो य। (सू.९) गलिय वि [गलित] गला हुआ, पतित, नष्ट हुआ। लंबियहत्थो गलियवथो। (भा.४) गब्ब पुं [गर्व] अहंकार, घमण्ड। (भा.१०३) असिऊण माणगब्बं । (भा.१०३) गबिद वि [गर्वित] अभिमानी, घमण्डी। जे णाणगव्विदा होऊण | (शी.१०) गस सक [ग्रस्] निगलना, आहार ग्रहण करना। (भा.२२) गसिउं असुद्धभावेण | गसिउं (हे.कृ.भा.२२) गसिअ/गसिय वि [ग्रसित] भक्षित, खाया हुआ। गसियाई पोग्गलाई। (भा.२२) गह सक [ग्रह्] ग्रहण करना, लेना, प्राप्त करना। (भा.७, २४) गहि (वि. आ. म. ए.) गहिऊण (सं.कृ.मो.८६) गहण न [ग्रहण] ग्रहण करने वाला। (पंचा.१४८, प्रव. चा.२२, निय.६४) जोगणिमित्तं गहणं। (पंचा.१४८) -भाव पुं भाव ग्रहण भाव। जो मुचदि गहणभावं। (निय.५८) गहिय वि [गृहीत] स्वीकृत,विदित,ज्ञात|अच्चेयणं वि गहियं । (मो.९) ते गहिया मोक्खमग्गम्मि। (मो.८०,८२) गा/गाअ सक [गै] गाना। गायदि (व. प्र. ए. लिं.४) णच्चदि गायदि तावं। For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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