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कवाड पुंन [कपाट] किवाड, द्वार, दरवाजा। (द्वा. ६१) वज्जिय
सम्मत्तदिढकवाडेण। (द्वा.६१) कसाअ/कसाय पुं [कषाय] कषाय,क्रोध,मान,माया और लोभ ये चार कषायें हैं। आत्मा को जो कसे, दुःख दे, वह कषाय है। सब्वे कसाय मोत्तुं। (भा.२७) णाहं कोहो माणो, ण चेव माया ण होमि लोहो हं। (निय.८१) -उदय पुं [उदय] कषाय का उदय। (स. १३३)-कम्म पुं न [कर्मन्] कषाय कर्म। (स.२८१) -णाण न [ज्ञान] कषाय ज्ञान। (बो.३२) -दढमुद्दा स्त्री [दृढमुद्रा] कषाय की दृढ़ मुद्रा। (बो.१८) -भाव पुं [भाव] कषाय भाव। ण य रायदोसमोहं, कुव्वदि णाणी कसायभावं वा। (स.२८०) -मल पुं न [मल] कषायमल, कषायरूपी पाप। (बो.१) -विसब पुं [विषय] कषाय विषय,कषाय से उत्पन्न भोग, कषाय के कारण। तह भावेण ण लिप्पदि, कसायविसएहिं सप्पुरिसो। (भा.१५३) कह/कहं अ [कथम्] कैसे, किस तरह, क्यों, किसलिए। (निय.१३४, स.२४९,सू.२४) ते कह हवंति जीवा। (स.६८) ताहि कहं भण्णदे जीवो। (स.६६) कह सक [कथय्] कहना, बोलना। कहयंति (व.प्र.ब.निय.१४५)
कहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं। (द.३३) कहता (व.कृ.द.९) तस्स य दोसकहता। कहा स्त्री [कथा] कथा, वार्ता, (स.३, निय.६७) आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कथा के तीन भेद किये हैं-काम,भोग और बन्ध। सव्वस्स वि काम-भोग-बंधकहा। (स.४) नियमसार में
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