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कल्पसूत्र
।। ४०॥
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अय-मेया-रूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था । हडे मे से गब्भे, मडे मे से गब्भे, चुए मे से गब्भे, गलिए मे से गब्भे, एस मे गब्भे पुव्वि एयइ, इयाणिं नो एयइ त्ति कटु,
ओहय-मण-संकप्पा चिंता-सोग-सागरं संपविठ्ठा, करयल-पल्हत्थ-मुही अट्टज्झाणो-वगया भूमिगय-दिठ्ठिया झियायइ, तं पि य सिद्धत्थ-रायवर-भवण उवरयमुइंग-तंती-तल-ताल-नाडइज्ज-जण- मणुज्जं दीण-विमणं विहरइ ।। सू. ९२ ।। तए णं से समणे भगवं महावीरे माऊए अय-मेया-रूवं अब्भत्थियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता एगदेसेणं एयइ, तए णं सा तिसला खत्तियाणी हठ्ठतु जाव हिअया एवं वयासी ।। सू. ९३ ।। नो खलु मे गब्भे हडे, जाव नो गलिए, एस मे गब्भे पुव्वि नो एयइ, इयाणि एयइ त्ति कटु, हठ्ठतु जाव हियया एवं विहरइ, तए णं समणे भगवं महावीरे गब्भत्थे चेव इमेया-रूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, “नो खलु मे कप्पइ अम्मा-पिऊहिं जीवन्तेहिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए” || सू. ९४ || तए णं सा तिसला खत्तियाणी ण्हाया कय-बलि-कम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता जाव सव्वा-लंकार-विभूसिया तं गब्भं नाइ-सीएहिं, नाइ-उण्हेहिं, नाइ-तित्तेहिं, नाइ-कडुएहिं, नाइ-कसाएहिं, नाइ-अंबिलेहिं, नाइ-महुरेहिं,
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