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मालकीयत करने का हकदार अब कोई भी नहीं रहा है, जिन को जमीन में दबानेवाले सर्वथा नष्ट हो गये हैं, जिन के मालिकों के घरबार तक भी नाश हो चुके हैं ऐस निधान देवता लोग लालाकर राजकुल में भरते हैं । अब वे निधान किन-किन स्थानों से देवता लाते थे सो कहते है-ग्रामों से आकरों से अर्थात् लोहादि की खानों में से, नगरों से, जिसके इर्दगिर्द धूली का कोट हो ऐसे खेट से, कुनगरों से दूर प्रदेश के ग्रामों से जिस जगह जल और स्थल के मार्ग मिलते हों ऐसे स्थानों से आश्रमों से, संवाहस्थानों से अर्थात् खेडुतों की धान्यसंग्रह करने की भूमि में से, संन्निवेशों
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राजमार्गों से ग्रामों के ऊँचे स्थानों से नगर का परनी निकलने के स्थानों से अर्थात् पुष्पित बगीचों से, स्मशानों से से, शान्ति गृहों से, शैल-पर्वत गृहों
त्रिकोण स्थानों से चौराहों से, अनेक मार्ग संमेलक स्थानों से, चतुर्मुख स्थानों से, देवकुलों-देवालयों से, मठों से, नगरों के ऊँचे स्थानों से ग्रामों का जल निकलने के स्थानों से इसी तरह से पुरानी दुकानों से जीर्ण सभाओं से, जीर्ण प्रपाओं से, आराम-बगीचों से, उद्यान शून्यागार जिन घरों में कोई भी मनुष्य न रहता हो ऐसे घरों से, पर्वतों की गुफाओं से इत्यादि स्थानों में जो कृपण मनुष्यों द्वारा पूर्वकाल में दबाया हुआ निधन-धन और अब उन निधानों को कोई भी मालिक न रहने के कारण इंद्र की आज्ञा कुबेर के द्वारा मिलने का जृंभक जाति के देवता उन्हें सिद्धार्थ राजकुल में ला रखते हैं ।
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जिस रात्रि को श्रमण भगवन्त महावीरस्वामी ज्ञातकुल में संहरित हुए उस रात्रि से लेकर ज्ञातकुल हिरण्य
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