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देखने से वह रत्नों के गढ़ों से विभूषित होगा । निर्धूम देखने से वह भव्यजनरूप सुवर्ण को शुद्ध करने वाला होगा । चौदह स्वप्नों को एकत्रित फलरूप वह चौदह राजलोकात्मक लोक के अग्र भाग पर रहनेवाला होगा । इसलिए हे देवानुप्रिय ! त्रिशला क्षत्रियाणी ने अत्यन्त उदार और मंगलकारक स्वप्न देखे हैं ।
सिद्धार्थ राजा ने स्वप्न पाठकों से यह अर्थ सुन कर और धारण कर के हर्षित हो, संतोषित हो, यावत् हर्ष से * पूर्ण हृदयवाला हो कर दोनों हाथों से अंजलि कर के स्वप्नपाठकों से यों कहा -हे देवानुप्रिय पाठकों ! ऐसा ही है, हे
पाठको ! यह यथार्थ है, वांछित है । हे पाठकों ! तुम्हारे मुख से निकलते ही मैंने इन वचनों को ग्रहण कर लिया है ।
हे पाठको ! यह वांछित होने से मैने बारंबार अंगीकार किया है । यह अर्थ सच्चा है । जिस प्रकार आप कहते हैं वैसे रही है । योंह कह कर सिद्धार्थ राजा उस अर्थ को भली प्रकार धारण करता है, और धारण कर के उन स्वप्नपाठकों को
उसने विपुल शाली आदि उत्तम भोजन की वस्तुओं से, श्रेष्ठ पुष्पों से सुंगधित द्रव्यों से. पुष्पों की गुंथन की हुई मालाओं से और मुकुटादि आभूषणों से सत्कारित और विनययुक्त वचनों से सन्मानित किया एवं जीवन पर्यन्त निर्वाह चल सके इतना प्रीतिदान देकर उन्हें विदाय किया ।
अब सिद्धार्थ राजा सिंहासन पर से उठकर जहां पर त्रिशला क्षत्रियाणी कनात के अंदर बैठी थी वहां पर आया और आकर उससे कहने लगा कि-हे प्रिये ! इस प्रकार स्वप्नशास्त्र में बैंतालीस साधारण स्वप्न और * तीस महास्वप्न कहे हैं उन तीस महास्वप्नों में से तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती की माता तीर्थंकर अथवा चक्र
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