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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 114011 4000 40000 500 40 筑 www.kobatirth.org अंग स्वप्नं स्वरं चैव भौमं व्यंजनलक्षणे । उत्पातमंतरिक्षं च निमित्तं स्मृतमष्टधा 1111 अर्थः अंग के स्फुरण का परिज्ञान, उत्तम, मध्यम और जघन्य स्वप्नों के अर्थ का ज्ञान, दुर्गादि पशु-पक्षियों के स्वर का बोध, भूकंपादि पृथ्वी सम्बन्धी परिज्ञान, शरीर में जो मसे तिलादि व्यंजन होते हैं तत्सम्बन्धी ज्ञान, हाथ पैरों की रेखाओं सम्बन्धी सामुहिक लक्षण ज्ञान, सातवां उत्पात एवं उलकापात अर्थात् तारादि टूटने का परिज्ञान और आठवां अंतरीक्ष - ग्रहों के उदय अस्त से शुभाशुभ घटनाओं का परिज्ञान । इन अष्टांग निमित्त के पारगामी, विविध शास्त्रों में निपुण स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाने की आज्ञा दी । इस आज्ञा को सुन कर वे कौटुम्बिक पुरूष हर्षित और संतोष को प्राप्त होकर विनीतभाव से राजाज्ञा को सिरोधार्य कर वहां से निकलकर क्षत्रियकुण्ड नगर के मध्यम में होकर स्वजलक्षण पाठकों के घर जाते हैं। वहां जाकर स्वप्नलक्षण पाठकों से कहते हैं-हे देवानुप्रियो ! आप को सिद्धार्थ राजा ने 'बुलवाया है। स्वप्न लक्षणपाठक भी राजपुरूषों के मुख से ऐसा सुनकर अत्यन्त हर्षित और संतोषित हुये । उन्होंने स्नान किया, देवपूजा की, निर्मल वस्त्र पहने, मस्तक पर तिलक, सर्षव, दूब और अक्षतादि मांगलिक वस्तुयें धारण की । दुःस्वप्नादि को निवारण करने के लिए अपने मंगल किये, राजसभा में प्रवेश करने योग्य स्वर्णादि के बहुमूल्यवान् आभूषण धारण किये और क्षत्रियकुण्ड नगर के मध्य में होकर सब के सब राजसभा के द्वार पर एकत्रित हुए। वहां पर सबने मिल कर अपने में से किसी एक को अग्रसर बनाया और सब उसके अनु For Private and Personal Use Only 4000 40 500 500 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा व्याख्यान
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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