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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5 कुवलय, पद्म, उत्पल, तामरस, पुंडरीक, रक्तोत्पल-लाल कमल और पीत कमल, इत्यादि कमलों में प्रसन्न भ्रमरगण सुंगध से आकर्षित हो गुंजारव कर रहे हैं और उस सरोवर में कदंबक, कलहंस, चक्रवाक, बालहंस, सारस आदि पक्षी उत्तम जलाशय प्राप्त होने के कारण गर्व से निवास कर रहे हैं 1101 ग्यारवें स्वप्न में चन्द्रकिरणों के समान शोभावाले क्षीरसमुद्र को देखा-जिसका जल चारों दिशाओं में बढ़ रहा हैं, तथा जिसमें चपल से भी अति चपल और अत्यन्त ऊंची उठनेवाली तरंगें तट प्रदेश से टकरा-टकरा कर उसे शोभित करती हुई जोर का शब्द कर रही हैं । वे तरंगे प्रारम्भ में छोटी फिर बड़ी इस प्रकार निर्मल उत्कट क्रम से दौड़ती हुई क्षीरसमुद्र के मध्यम भाग को अत्यन्त सुशोभित कर रही हैं । उस समुद्र में महा मगरमच्छ, तिमि मच्छ, तिमित्तिमिगल मछ S (महाकाय मछ), तिलतिलक लघुमच्छ, ये सब प्रकार के जलचर प्राणी क्रीड़ा करते हुए जब-जब पानी पर अपनी पुच्छ * का प्रहार करते हैं तब पानी पर झाग पैदा होते हैं जो किनारे पर आकर कर्पूर के ढेर समान दिखाई देते हैं । उसी समुद्र में गंगा, सिन्धु, सितादि महानदियां बड़े वेग से आकर मिलती हैं । यद्यपि ये नदियां क्षीरसमुद्र में नहीं किन्तु लवण समुद्र में मिलती हैं तथापि समुद्र की शोभा के रूप में इनका वर्णन किया गया है ।11। बारहवें स्वप्न में शरद् रजनी पूर्णचंद्र के समान मुखवाली त्रिशला क्षत्रियाणी एक उत्तम देवविमान को देखती है-वह पुंडरिक नामक श्वेत और सर्व श्रेष्ठ कमल के समान श्रेष्ठ विमान है। तथा वह उत्तम प्रकार के For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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