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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 113611 4000 40 500 500 40 www.kobatirth.org रत्नजड़ित सुवर्ण के 1008 स्थंभोंवाला आकाश में दीपक एवं उदय होते हुए सूर्य के सदृश देदीप्यमान है। उसमें अनेक प्रकार के रंगबिरंगे पंचवर्णीय सुगन्धित पुष्पों की मालायें लटक रही हैं । तथा मोतियों की मालाओं से उसकी कान्ति में अधिक शोभा बढ़ रही है । उस दिव्य विमान की दीवारों में मृग, वृक्ष, वृषभ, अश्व, गज, मगर मच्छ, भारंड, वरूड़, मयूर, सर्प, किन्नर, कस्तूरिया मृग, अष्टापद, शार्दूलसिंह, वनलता, पद्मलता इत्यादि के रंगबिरंगे सुन्दर चित्र लिखे हुए हैं। उस विमान में जो विविध प्रकार के नाटक हो रहे हैं उनमें बजनेवाले अनेक बाजों तथा महामेघ के शब्द सदृश गंभीर देवदुन्दुभी का मनोहर और सर्व लोकको पूर्ण करनेवाला शब्द हो रहा है । देवों के योग्य पुण्य कर्मफल सुखदायक वह विमान कृष्णागुरू, कुन्दरूक, सेलारस आदि दशांग धूप से सुगन्धमय तथा उत्तेजित है 1121 प्रवाल, तेरहवें स्वप्न में त्रिशलादेवी ने उत्तम रत्नों को राशिसमूह को देखा उस रत्नों के समूह में पुलाक जाति के वज्र - हीरा की जाति के, नीलम, सस्यक, मरकत इंद्रनील करकेतन, लोहिताक्ष, मसारगल्ल स्फटिक, सौगन्ि क, हंसगर्भ, अंजन, चंद्रकांतमणि, माणिक्य, सासक, पन्ना आदि अनेक जाति के रत्न संचित हैं । वह रत्नों का पुंज मेरू के समान ऊँचा और अपने देदीप्यमान तेज से आकाश को भी प्रकाशमान कर रहा है ।13। चौदहवें स्वप्न में त्रिशला माता ने विस्तीर्ण, उज्ज्वल, निर्मल, पीतरक्तवर्णवाली तथा मधु घीसे सिंचित धग् धग् करती हुई जाज्वल्यमान् निर्धूम अग्रिशिखा को देखा वह अग्रिशिखा अनेक छोटी बड़ी ज्वालाओं से " For Private and Personal Use Only 201405051400 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा व्याख्यान
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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