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श्री कल्पसूत्र
नौवा
हिन्दी
व्याख्यान
अनुवाद
1115411
का आहार करना, जिनमंदिर जाना, शरीरचिन्ता आदि के लिए जाना, स्वाध्याय करना, कायोत्सर्ग करना एवं ॐ एक स्थान में आसन कर के रहना नहीं कल्पता । यदि वहां पर नजदीक में कहीं पर एक या अनेक साधु रहे हुए हों तो उसे इस प्रकार कहना चाहिये-हे आर्य ! जब तक मैं गृहस्थ के घर जाउ आउ, यावत् कायोत्सर्ग करूं
अथवा वीरासन कर एक जगह रहूं तब तक इस उपधि को आप संभाल रखना । यदि वह वस्त्रों को संभाल * रखना मंजूर करे तो उसे गृहस्थ के घर गोचरी के निमित्त जाना, आहार करना, जिनमंदिर जाना, शरीर चिन्ता
दूर करने जाना, स्वाध्याय या कायोत्सर्ग करना एवं वीरासन कर एक स्थान पर बैठना कल्पता है । यदि वह 1 मंजूर न करे तो नहीं कल्पता 152।।
19 चातुर्मास में रहे साधु साध्वियों को नहीं कल्पे । क्या न कल्पे ? सो बतलाते हैं - जिसने शय्या और आसन ग्रहण न किया हो उसे 'अनभिगृहीतशय्यासनिकः' कहते हैं । ऐसे साधु को जिसने शय्यासन ग्रहण न किया हो रहना नहीं कल्पता । अर्थात् वर्षाकाल में उपाश्रय में पट्टा, फलक आदि ग्रहण कर के रहना चाहिए । अन्यथा शीतल भूमि में सोने बैठने से कुंथु आदि जीवों की विराधना होने का संभव है और उससे कर्म एवं दोष का उपादान कारण होता है । यह अनभिगृहीतशय्यासनिकत्व समझना चाहिये ।।53। शय्या आसन ग्रहण करना । एक हाथ ऊंची और निश्चल शय्या रखना । ईर्या आदि समितियों में उपयोग रखनेवाले तथा अपनी वस्तुओं की बारंबार प्रतिलेखना करने वाले साधु को सुख पूर्वक संयम आराधना
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