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चातुर्मास रहे साघु जो चाहे वह कैसा साधु ? अपश्चिम याने चरम-अन्तिम मरण सो अपश्चिम मरण, परन्तु प्रतिक्षण आयु के दलिक अनुभव करने रूप आवीचि मरण नहीं । अपश्चिम मरण ही जिसमें अन्त है वह अपश्चिम मरणान्तिकी, ऐसी शरीर, कषायादिको कृश करने वाली संलेखना. द्रव्य भाव भेदों से भिन्न भेदवाली । ‘चत्तारि विचित्ताई' इत्यादि । उसका जोषण सेवन से संसेखना की सेवा उससे शरीर जिसने कृश कर डाला है. अर्थात् अपश्चिम मरणान्तिकी संलेखना की सेवा से सेवन से जिसने शरीर को अतिकृश कर डाला है और इसी कारण । जिसने भातपानी का भी प्रत्याख्यान कर लिया है, अर्थात् जिसने पादोपगम अनशन किया है और इससे जीवित काल को न चाहनेवाला साधु इस प्रकार करने की इच्छा रखता हुआ गृहस्थ के घर में जाने आने अशनादिका आहार करने मल, मूत्र परठने, स्वाध्याय करने तथा धर्मजागरिका जागने याने आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थानविचय ये चार भेदरूप धर्मध्यान के विधानादि द्वारा जागने को इच्छे तो गुरू आदि को पूछे सिवाय कुछ भी करना नहीं कल्पता । सब कुछ पहले जैसे ही समझना चाहिये । गुरु की आज्ञा से ही करना | कल्पता है 1511
अठारहवां चातुर्मास रहे साधु वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण एवं अन्य उपधि तपाने के लिए एक दफा धूप . में सुकाने के लिए, न तपाने से कुत्सापनक आदि दोषोत्पत्ति का संभव होने से बारंबार तपाना इच्छे तब एक *साधु या अनेक साधुओं को मालूम किये बिना उसे गृहस्थ के घर भातपानी के लिए जाना आना या अशनादि हैं
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