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होती है । पूर्वकाल में शय्या आसन चातुर्मास में साधुओं को ग्रहण करने का जो रीतरिवाज था आजकल वह न होने से और ग्रंथ विस्तृत हो जाने के भय से यह विषय सविस्तर नहीं लिखा है 154।।
बीसवां चातुर्मास रहे साधु-साध्वियों को स्थंडिल-शौच और मात्रालघुनीति के लिए तीन जगह कल्पती है । जो सहन न कर सके अर्थात् हाजत के वेग को न रोक सके उनको तीन जगह अन्दर रखनी चाहियें । जो सहन कर सकता है उसको तीन जगह बाहर रखनी चाहियें । यदि दूर जाने में हरकत आवे तो मध्यभूमि रखना चाहियें । उसमें भी हरकत आवे तो नजदीक की भूमि रखना । इस प्रकार आसन, मध्य और दूर ये तीन तरह की भूमि हैं. उन्हें प्रतिलेखना चाहिये । जिस प्रकार चातुर्मास में किया जाता है उस प्रकार शरदी और गरमियों में नहीं किया जाता इस लिए हे पूज्य ! इसका क्या कारण है ? ऐसा शिष्य का प्रश्न होने पर गुरू कहते हैं कि-चातुर्मास में जीव शंखनक, इंद्रगोप, क्रमी आदि वनस्पति के नये उत्पन्न हुए अंकुर, पनक, फूलण एवं बीज में से उत्पन्न हुई हरित ये तमाम अधिक पैदा होती हैं, इसी कारण चातुर्मास में इनके लिए खास कथन किया गया है 1551
इक्कीसवां चातुर्मास रहे साधु साध्वी को तीन मात्रा पात्र रखने कल्पते हैं । एक स्थंडिल के लिए मात्रा के लिये दूसरा और तीसरा श्लेष्म के लिए । पात्र न होने से वक्त बीत जाने के कारण शीघ्रता करते हुए आत्मविराधना तथा वर्षा होती हो तो बाहर जाने में संयमविराधना होती है 1561
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