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रह कर, त्रेसठ लाख पूर्व राज्यावस्था में रह कर तिरासीलाख पूर्व गृहस्थावस्था में रह कर एक हजार वर्ष छमस्थ । पर्याय पाल कर, एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक केवलीपर्याय पाल कर, एक लाख पूर्व चारित्र पर्याय पाल कर और चौरासी लाख पूर्व का सर्वायु पाल कर वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म के क्षय हो जाने पर इसी अवसर्पिणी में सुषमदुषम नामक तीसरा आरा बहुतसा बीत जाने पर -तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने शेष रहने पर अर्थात् तीसरे आरे के नवासी पक्ष शेष रहने पर, शरद् ऋतु के तीसरे महीने और पांचवें पक्ष में- माघ - मास की कृष्ण त्रयोदशीके दिन अष्टापद पर्वत के शिखर पर दश हजार साधुओं के साथ चौवीहार छह उपवास
का तप कर के अभिजित नामक नक्षत्र में चंद्रयोग प्राप्त होने पर प्रातः समय पल्यकासन से बैठे हुए निर्वाण को प्राप्त हुए । यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हो गये ।
जिस वक्त श्रीऋषभदेव प्रभु मोक्ष सिधारे उस वक्त कंपितासन इन्द्र अवधिज्ञान से प्रभु का निर्वाण जान कर अपनी अग्रमहिषी सहित, लोकपालादि सर्व परिवार सहित प्रभु के शरीर के पास आकर तीन प्रदक्षिणा दे कर निरानन्द अश्रुपूर्ण नेत्र से न अति दूर और न अति नजदीक रह कर हाथ जोड़ पर्युपासना करने लगा । इसी प्रकार प्रकंपितासन ईशानादि समस्त इंद्र प्रभु का निर्वाण जान कर अष्टापद पर्वत पर अपने परिवार सहित वहां आते हैं जहां प्रभु का शरीर था । पूर्ववत् निरानन्द हो हाथ जोड़ कर खड़े रहते हैं । फिर इन्द्रने भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों से नन्दनवन से गोशीर्षचंदन मंगवा कर तीन
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