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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir The [1950 फिर उन्होने वाग् और मुष्टि तथा दंडरूप यह चार प्रकार का युद्ध नियत किया । उसमें भी भरतचक्री का पराजय हुआ । फिर क्रोधांध होकर भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा, परन्तु एक गोत्री पर चक्र न चलने के कारण उस चक्रने उसका अनिष्ट न किया । उस वक्त क्रोधित हो भरत को मार डालने की इच्छा से मुक्का उठा कर सन्मुख दौड़ते हुए बाहुबलि ने विचार किया "अरे ! पिता तुल्य बड़े भाई को मारना मेरे लिए सर्वथा अनुचित है, और उठाया हुआ हाथ निष्फल भी न जाना चाहिये" यो विचार कर हाथ को अपने मस्तक पर रख कर केशलुचन कर और सर्व सावद्य का त्याग कर दीक्षित हो वहां पर ही ध्यान लगा दिया । यह देख कर भरतने उनके पैरों में पड़कर प्रन अपने अपराध की क्षमायाचना की और फिर वे अपने घर चले गये । बाहुबलि भी "दीक्षापर्याय से बड़े, छोटे भाईयों को कैसे नमूं? इसलिए जब केवलज्ञान हो जायगा तब ही प्रभु पास जाउंगा" यों विचार कर एक वर्ष तक वहां पर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े रहे । वर्ष के बाद प्रभु द्वारा भेजी गई अपनी बहिनों ने "हे भाई ! हाथी से नीचे उतरो" ऐसे कह कर प्रतिबोधित किया । फिर बाहुबलिने ज्यों पैर उठाया त्यों ही उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । वहां से प्रभु के पास जाकर लंबे समय तक विचर कर प्रभु के साथ ही मोक्ष पधारे । इधर भरत चक्रवर्ती भी बहुत समय तक चक्रवर्ती लक्ष्मी को भोग कर एक दिन सीसमहल (आरिसाभवन) में अंगूठी रहित अपनी अंगूली को देख अनित्यता की भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर दश हजार राजाओं के साथ देवता द्वारा दिये हुए मुनिवेश को ग्रहण कर भरत राजा चिरकाल तक विचर कर मोक्ष सिधारें । की सी For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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