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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ||121|| 100000 www.kobatirth.org हुए थे और जिन्हें प्रभु ने अपने पुत्र समझ कर रक्खा था, वे जब देशान्तर से आये तब भरत उन्हें राज्य का हिस्सा न देने लगा । परन्तु वे उसकी अवगणना कर पिता के वचनानुसार प्रभु के पास आये और प्रतिमा धारण कर रहे हुए प्रभु के आगे कमलपत्रों में पानी लाकर चारों तरफ भूमि को सिंचित कर तथा पुष्पों का ढेर लगा कर पंचांग नमस्कार पूर्वक "प्रभो ! हमें राज्य दो" इस प्रकार सदैव प्रार्थना करने लगे। एक दिन प्रभु को वन्दन करने आये हुए धरणेंद्र ने उनका ऐसा आचरण और प्रभु के प्रति अतिभक्ति देख संतुष्ठ होकर कहा "अरे ! प्रभु तो निःसंग हैं, उनके पास मत मांगो, प्रभु की भक्ति से तुम्हें मैं ही दूंगा" यों कह कर उन्हें अड़तालीस हजार विद्यायें दीं । उनमें गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्तिरूप चार महाविद्यायें पाठसिद्ध दीं विद्यायें देकर कहा- इन विद्याओं द्वारा विद्याधर की ऋद्धि को प्राप्त कर तुम अपने सगे संबन्धियों को लेकर वैताढ्य पर्वत पर चले जाओ, वहां दक्षिण श्रेणि में गौरेय गांधार, प्रमुख आठ निकायों को तथा रथनुपुरचक्रवाल आदि पचास नगरों को और उत्तर श्रेणि में पंडक, वंशात आदि आठ निकायों को तथा गगनवल्लभादि नगरों को वसा कर रहो। फिर कृतार्थ होकर वे दोनों भाई अपने पिताओं और भरत को अपना सर्व वृत्तान्त सुना कर दक्षिण श्रेणि में नाम और उत्तर में चले श्रेयांसकुमार का दान अब अन्न-जल देने में अकुशल समृद्धिवाले लोग प्रभु को वस्त्र, आभरण तथा कन्या आदि दान देने लगे, For Private and Personal Use Only 410505004050140 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवां व्याख्यान 121
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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