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ऐसे ही रहने दीजीये । भगवान ने वैसा ही किया । ५ फिर चौविहार छठ का तप कर के उत्तराषाढा नक्षत्र में चंद्रयोग प्राप्त होने पर उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय र
कुल के कच्छ महाकच्छ आदि चार हजार पुरुष "जिन्होंने यह निश्चय किया हुआ था कि जैसा प्रभु करेंगे वैसा - ही हम करेंगे" के साथ प्रभुने इंद्र का दिया हुआ एक देवदूष्य वस्त्र लेकर दीक्षा ग्रहण की। ॐ अर्हन् कौशलिक श्री ऋषभदेव प्रभु एक हजार वर्ष तक नित्य शरीर को वोसरा कर-उसका ममत्व छोड़कर मैं
विचरे थे । दीक्षा लेकर प्रभु धोर अभिग्रह धारण कर ग्रामोग्राम विचरने लगे । उस समय लोगों के पास अत्यन्त समृद्धि होने के कारण भिक्षा क्या होती है ? यह कोई भी नहीं जानता था । इससे जिन्होंने प्रभु के साथ दीक्षा
ली थी वे क्षुधापीड़ित होकर प्रभु से उपाय पूछने लगे । परन्तु मौन धारण किया होने से प्रभु ने उन्हें कुछ भी उत्तर में न दिया । इसलिए उन्होंने फिर कच्छ महाकच्छ से प्रार्थना की । वे बोले-आहार का विधि तो हमें भी मालूम नहीं
है और आहार कि बिना कैसे रहा जाय ? हमने पहले प्रभु से इस विषय में कुछ पूछा भी नहीं । इसलिए विचार करने पर वनवास ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार विचार कर वे प्रभु का ही ध्यान धरते हुए गंगा के किनारे पडे हुए पत्ते वगैरह खानेवाले और साफ न किये हुए केश के गुच्छेवाले जटाधारी तापस बन गये ।
इधर कच्छ और कहाकच्छ के नमि विनमि नाम के दो पुत्र थे जो प्रभु के दीक्षासमय कहीं बाहर गये
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