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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
सातवां
व्याख्यान
अनुवाद
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से वे प्रभु के पास जाते थे, इतने ही में प्रभु को मार्ग में ही हाथी पर बैठे सन्मुख आते देख उन्होंने प्रभु से सब बात कही । प्रभु ने कहा किसी बरतन आदि में रख कर तुम्हें धान्यादि उस अग्नि पर रखना चाहिये । यों कह कर प्रभु ने उन्हीं के पास मिट्टी का पिंड मंगवा कर उसे हाथी के कुंभस्थल पर थपवा कर महावत से उसका बरतन बनवा कर प्रभु ने पहले पहल कुंभकार की कला प्रगट की और कहा-'इस प्रकार के बरतन बना कर उसे अग्नि में पका कर उसमें धान्य पकाओ" प्रभु की बतलाई हुई कला को ठीकतया ध्यान में रख कर वे युगलिक उसी
तरह करने लगे । इस तरह पहले कुंभार की कला प्रगटी । फिर लुहार की, चित्रकार की, जुलाहे की और नापित प्र की कलारूप चार कलायें प्रगट की । इन पांच मूल कलाओं के प्रत्येक के बीस बीस भेद होने से एकसी प्रकार .का शिष्प होता है।
पुरूष की बहत्तर कलायें दक्ष-सत्य प्रतिज्ञावाले, सुन्दर रूपवाले, सर्व गुणवाले, सरल परिणामवाले और विनयवान् अर्हन कोशलिक श्री ऋषभदेव प्रभु बीस लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे । फिर त्रेसठ लाख पूर्ण तक राज्यावस्था में रहते ५ हुए लेखनादि तथा जिसमें गणित मुख्य है और अन्त में पक्षियों के शब्द जानने की कलावाली पुरुष की उन्होंने बहत्तर कलायें बतलाई । वे लेखनादि बहत्तर कलायें निम्न प्रकार हैं । लेखन 1, गणित 2, गीत 3, नृत्य 4, वाद्य 5, पठन 6. शिक्षा 7, ज्योतिष 8, छंद 9, अलंकार 10. व्याकरण 11, निरूक्त्ति 12, काव्य 13, *
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