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. जो इक्ष्वाकु वंश के थे वे इक्षु-गन्ने खाते और दूसरे प्रायः अन्य वृक्षों के पत्र पुष्प और फलादि खाते । इस प्रकार अग्नि के अभाव से कच्चे ही चावल वगैरह धान्य खाते थे । परन्तु काल के प्रभाव से वह न पचने के कारण थोड़ा थोड़ा खाने लगे । फिर वह भी न पचने से प्रभु के कहे मुजब चावल आदि को हाथ से मसल कर उनका छिलका उतार कर खाने लगे फिर वह भी न पचने से प्रभु के उपदेश से पत्तों के दौने में पानी से भिगो कर चावलादि खाने लगे । इस तरह भी न पचने से कितने एक समय तक पानी में रखकर फिर हाथ में दबाया रखकर इत्यादि अनेक प्रकार से वे चावलादि अन्न खाने लगे । इस प्रकार गुजारा करते हुए एक दिन वृक्षों के परस्पर के संघर्षण से नवीनता उत्पन्न हुई. पूर्ण बलती ज्वालावाले और तृणसमूह को ग्रास करते हुए अग्नि को देख "यह कोई नवीन रत्न है" ऐसी बुद्धि से हाथ पसार कर के युगलिये उसे लेने लगे। हाथ जलजाने पर भयभीत हो प्रभु के पास जाकर फर्याद की । तब प्रभु ने अग्नि की उत्पत्ति जान कर कहा “हे युगलिको ! यह अग्नि उत्पन्न हुई है। अब तुम चावलादि अन्न उसमें डालकर खाओ जिससे तुम्हे सुख से पचेगा " प्रभु ने यह उपाय बतलाया तथापि पकाने का अभ्यास न होने से और उपाय अच्छी तरह न जानने के कारण वे युगलिये अग्नि में अन्न डालकर फिर पहले जैसे कल्पवृक्ष से फल मांगा करते थे त्यों अग्नि से वापिस मागते हैं, परन्तु अग्निद्वारा उसकी राख हुई देख "अरे ! यह तो राक्षस के समान अतृप्त हो स्वयं ही सब कुछ भक्षण कर लेता है, हमें कुछ भी वापस नहीं देता अतः इसका अपराध प्रभु से कह कर इसे दंड दिलायेंगे" इस विचार
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