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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
सातवा
व्याख्यान
अनुवाद
||11511
- प्रभ का च्यवन और जन्म कल्याणक - उस काल उस समय में अर्हन् कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु ग्रीष्मकाल के चौथे मासे में सातवें पक्ष में, आषाढ़ मास की कृष्ण चौथ के दिन तैतीस सागरोपम की स्थितिवाले सर्वार्थसिद्ध नामक महाविमान से अंतर
रहित च्यवकर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, इक्ष्वाकु भूमि में, नाभि नामक कुलकर की मरूदेवा नामा स्त्री * की कुक्षि में मध्य रात्रि के समय दिव्य आहारादि का त्याग कर गर्भरूप से उत्पन्न हुए ।
अर्हनृ कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु गर्भ में भी तीन ज्ञान सहित थे । उसके द्वारा, मैं यहां से चqगा यह जानते थे । मरूदेवी माताने स्वप्न देखे सो गयवसह, इत्यादि गाथा कहकर, श्रीवीरप्रभु के चरित्र समान ही जान लेना चाहिये । परन्तु यहां इतना विशेष है कि मरूदेवी माता ने प्रथम वृषभ को मुख में प्रवेश करते देखा और दूसरे जिनेश्वरों की माता प्रथम हाथी को देखा था । वीर प्रभु की माता ने प्रथम सिंह को देखा था । मरूदेवी ने स्वप्नों की हकीकत नाभिकुलकर से कहीं, क्यों कि उस समय स्वप्नपाठक नहीं थे । इस से नामि कुलकरने ही स्वयं स्वप्नों का फल कहा ।
उस काल और उस समय अर्हन् कौशलिक श्रीऋषभदेव प्रभु का ग्रीष्मऋतु के प्रथम मास में, पहले पक्ष में अर्थात् चैत्र मास की कृष्ण अष्टमी के दिन नव महीने परिपूर्ण होने पर यावत् उत्तराषाढा नक्षत्र में चंद्रयोग
1 कोशला-अयोध्या, वहां जन्मने से कौशालिक । 2. गुजराती जेट यदि 4 ।
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