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व्याख्या की है वैसे ही हम भी करते हैं । कितनेक कहते हैं कि पुस्तकाकार में लिखाने का काल बतलाने के लिए Shयह सूत्र श्रीदेवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने लिखा है, इससे यह अर्थ निकलता है कि जैसे श्रीवीर निर्वाण से नवसौ . अस्सी वर्ष बीतने पर सिद्धान्त पुस्तकारूढ हुआ तब कल्पसूत्र भी पुस्तकारूढ हुआ है । कहां भी है-कि.
श्री वीर भगवान से नव सी अस्सी वर्ष पर वल्लभीपुर नगर में श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण प्रमुख सकल संघ #ने पुस्तक में आगम लिखे । दूसरे कहते हैं कि नवसौ अस्सी वर्ष पर आनन्दपुर में धुवसेन राजा जो कि है बह पुत्र मृत्यु से दुःखित था उसको आश्वासन देने के लिए कल्पसूत्र सर्व प्रथम संघ समक्ष महोत्सव पूर्वक
पंडितों ने वांचना प्रारम्भ किया । इत्यादि अन्तर वाच्य के वचन से श्रीवीर निर्वाण से नव सौ अस्सी वर्ष बीतने पर कल्पसूत्र की सभा समक्ष वाचना हुई यह बताने के लिए यह सूत्र रक्खा है; परन्तु तत्व तो केवलीगम्य है । वाचनान्तर में यह भी देखा जाता है कि यह नवसौ तिराणवेवां वर्ष जाता है । कितने एक कहते हैं कि वाचनान्तर का तात्पर्य-दूसरी प्रत में 'तणउए' ऐसा पाठ मिलता है । अर्थात् किसी प्रत में नव सौ अस्सी और किसी में नव सौ तिराणवें लिखा मिलता है । कितने एक कहते हैं कि वीर निर्वाण से नवसौ अस्सी वर्ष बीतने पर कल्पसूत्र पुस्तकरूप में लिखा गया और वाचनान्तर से नवसौ तिराणवें में कल्पसूत्र की सभा में वाचना हुई । इसी प्रकार श्री मुनिसुन्दरसूरि ने अपने बनाये हए स्तोत्ररत्नकोश में भी कहा है कि 'श्रीवीर से 993 वर्ष में चैत्य से पवित्र ऐसे आनन्दपुर में धुवसेन राजा ने महोत्सव पूर्वक सभा में कल्पसूत्र की
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