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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
छट्टा
.
व्याख्यान
की
अनुवाद
119311
*"को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इंद्रयमवरूणकुबेरादीन्" इन पदों से प्रत्यक्ष देवों का निषेध मालूम होता है,
और "स एष यज्ञायुधी यजमानों जसा स्वर्गलोकं गच्छति" इन पदों से देव सत्ता प्रतीत होती है, यही तेरे मन में संदेह है, पर यह अयुक्त है । क्यों कि इस पर्षदा में बैठे हुए देवों को हम तुम सब ही प्रत्यक्ष देख रहे हैं । वेद र में जो "मायोपमान्" पद कहा है वह देवों का भी अनित्यपन सूचित करता है अर्थात् देवता भी शास्वत नहीं है यह सप्तम गणधर हुए ।
अब नारकी के विषय में शंकावाले अकंपित नामक पंडित को प्रभु ने कहा-तुम भी वेदार्थ को नहीं जानते. ? ''नह वै प्रेत्य नरके नारकाः सन्ति'' इत्यादि पदों से नारकी का अभाव प्रतीत होता है, और "नारको वै एष जायते यः शुद्रान्नमश्रनाति" इत्यादि पदों से नारकी का सद्भाव साबित होता है । यह तेरे मन में शंका है । परन्तु "नह वै प्रेत्य नरके नरकाः सन्ति'' इन पदों का अर्थ-परलोक में नारक भी मेरुपर्वत समान शाश्वते नहीं है, किन्तु जो पापाचरण करता है वह नारक होता है, या नारक मरकर फिर तुरन्त ही दूसरे भव में नारकतया उत्पन्न ह नहीं होता यह है । यह सुनकर अष्टम गणधर प्रतिबोधित हुए ।
अब पुण्य के विषय में शंकावाले अचलभ्राता नामा पंडित को प्रभु ने कहा -तू भी वेद का अर्थ नहीं अकंपित को नारकी में शंका थी. प्रभु ने उनका भी समाधान किया । अचलभाता को पुण्य पाप की शंका थी।
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