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आदि गुण युक्त हो तो मनुष्य सम्बन्धी आयुकर्म बांध कर फिर भी मनुष्यपन को प्राप्त होता है । परन्तु मनुष्य
मनुष्य ही होता है ऐसा बतलानेवाले वे पद नहीं हैं । तेरे मनमें एक ऐसी युक्ति है कि जैसे चावल बोने से गेहूं २ नहीं उगते, वैसे ही मनुष्य मरकर पशु या पशु मरके मनुष्य नहीं हो सकता, परन्तु यह युक्ति ठीक नहीं है; क्यों 0
कि गोबर आदि से बिच्छु वगैरह की उत्पत्ति प्रत्यक्ष देख पडती है, इसलिए कार्य का वैदृश्य भी साबित ही है । 5 यह पंचम गणधर हुए । - अब बन्धमोक्ष के विषय में शंकावाले मंडित नामक पंडित को प्रभुन कहा-तू भी वेद का अर्थ नहीं जानता ? "स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा'' इन पदों का अर्थ तुं इस प्रकार करता है यह संसारवर्ती
जीव विगण-सत्वादिगण रहित है और विभ-सर्व व्यापक है, वह बंधता नहीं, अर्थात् पुण्य पाप से नहीं जुड़ता, संसार * में परिभ्रमण भी नहीं करता । बन्ध का अभाव होने से वह कर्म से मुक्त भी नहीं होता एवं अकर्तापन होने से दूसरे को
भी कर्म से नहीं छुड़ाता । परन्तु यह अर्थ यथार्थ नहीं है, ठीक अर्थ सुनो-विगुण-छद्मस्थ गुणरिहत और विभु केवलज्ञान मा स्वरूप से विश्व व्यापक पन होने से सर्वज्ञ आत्मा पुण्य पाप से लिप्त नहीं होता । यह छठे गणधर हुए ।
अब देव विषय में शंकावाले मौर्यपुत्र नामक पंडित को प्रभु ने कहा-तू भी वेद के अर्थ को नहीं जानता?
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* मंडित की शंका थी कि-आत्मा तो अरूपी है, कर्मरूपी है । अरूपी को रूपी का संबंध कैसे हो जाता है ? प्रभु ने समाधान किया ।
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