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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
अनुवाद
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परिणत जो उपयोगात्मक आत्मा है वह हेतुभूत घटादि से ही उत्पन्न होता है. क्यों के परिणाम का घटादिक का एक सापेक्षपन रहा हुआ है, इस तरह भूतरूप घटादिक वस्तुओं से उनका उपयोगात्मक जीव पैदा होकर उनमें ही न विलीन हो जाता है, अर्थात् उन घटादिवस्तुओं के नाश हो जाने पर उनके निमित्त से उत्पन्न हुआ उपयोगात्मक आत्मा भी नष्ट हो जाता है और दूसरे उपयोगतया उत्पन्न होता है। इस कारण प्रेत्यसंज्ञा नहीं रहतीं । अर्थात् घटादि वस्तुओं के आकार नष्ट होकर किसी दूसरे रूप में परिवर्तित होने पर तज्जन्य उपयोगात्मक आत्मा भी नष्ट होकर दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है, इसलिए घटादि के उपयोगरूप पहली संज्ञा नहीं रहती । क्यों कि वर्तमान उपयोगतया घटादि की संज्ञा नष्ट हो चुकी है । तथा यह आत्मा ज्ञानमय है और जो दम, दान एवं दया, इन तीनों दकारों को जाने वह जीव आत्मा, तथा भोग्य और भोक्ता भाव से भी शरीर भोग्य और आत्मा उसका भोक्ता है । जैसे चावल भोग्य है तो उसका भोक्ता भी है । इत्यादि अनुमान से भी आत्मा सिद्ध होता है । तथा जैसे दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में सुगन्ध और चंद्रकान्त में अमृत रहता है त्यों यह आत्मा भी शरीर में पृथक रहता है । इस प्रकार प्रभु वचनों से संदेह नष्ट हो जाने पर इंद्रभूति ने पांच सौ शिष्यों सहित प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण करली। उसी वक्त प्रभु के मुख से "उपन्नेइ वा, विगमेइ वा और धुवेइ वा" यह त्रिपदी प्राप्त कर उन्होंने द्वादशांगी की रचना की ।
इति प्रथम गणधर समाधान ।
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