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अब उनके दूसरे भाई अग्निभूति ने अपने भाई को दीक्षित हुआ सुनकर विचार कि कदाचित् पर्वत पिघले, बरफ जल उठे, अग्नि शीतल हो जाय और वायु स्थिर हो जाय तथापि मेरा भाई किसी से हार जाय यह संभव नहीं होता । इस बात पर विश्वास न रखकर उसने बहुत से लोगों से पूछा, निश्चय हो जाने पर उसने विचार किया-मैं अभी जाकर उस धूर्त को जीत कर अपने भाई को वापिस लाता हूं। यह विचार कर वह भी शीघ्र प्रभु के पास आया । प्रभु ने भी उसे उसके गोत्रनामपूर्वक बुलाया और उसके मन में रहे हुए संदेह को प्रगट कर
के कहा -हे गौतम गोत्रीय अग्निभूति ! क्या तेरे मन में कर्म का संदेह है ? क्या तू वेद के तत्वार्थ को भली 55 प्रकार नहीं जानता ? सुन, वह इस प्रकार है । "पुरूष एवेदं ग्नि सवं यद्भूतं यच्च भाव्यं इत्यादि" इस प्रकार
तेरे मन में ऐसा अर्थ भासित है । जो अतीत काल में हो गया है और जो आगामी काल में होगा वह सब "पुरुष
एवं" आत्मा ही है । यहां एवकार यह कर्म, ईश्वर आदि के निषेध में है । इस वचन से जो मनुष्य, देव, तिर्यच, 5 पृथ्वी, पर्वत आदि देख पड़ते हैं, सो सब कुछ आत्मा ही है और इस से कर्म का प्रगट ही निषेध होता है । तथा#
अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के द्वारा लाभ और हानि किस तरह संभवित हो सकते हैं ? जिस प्रकार आकाश को चंदनादि का लेप नहीं हो सकता, तलवारादि से उसे काटा नहीं जा सकता इसी
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1इस रीचा का सार यह है कि कोई कोई वचन ऐसे होते है जिनमे किसी एक ही वस्तु की तारीफ की जाती है, जैसे गीताजी में कृष्ण की स्तुति की है. इससे दूसरी सब चीजों का अभाव नहीं समझना चाहिये ।
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