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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 0500000050440 www.kobatirth.org मन में जीव के विषय में संदेह है ? तू वेद पदों के अर्थ को ठीक तरह नहीं विचारता । उन वेदपदों को सुन । फिर प्रभु द्वारा उच्चारण किये गये वेदपदों का ध्वनि मथन करते समुद्र के समान, अथवा गंगापूर के समान, • आदि ब्रह्म की वाणी के समान शोभता था । वेद के पद नीचे मुजब थे । "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्यसंज्ञास्तीती" प्रथम तो तू उन पदों का ऐसा अर्थ करता है कि "विज्ञानघन " - गमनागमन की चेष्टावाला आत्म "एतेभ्यो भूतेभ्यः " पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, इन पांचों भूतों से मद्यांग में मदशक्ति के समान उत्पन्न होकर उन भूतों के साथ ही नाश पाता है, अर्थात् पानी में बुलबुले के समान उन्हीं में लीन हो जाता है । इसलिए पंच भूतों से भिन्न आत्मा न होने के कारण प्रेत्यसंज्ञा नहीं है । अर्थात् मृत्यु के बाद उसक पुनर्जन्म नहीं है । परन्तु यह अर्थ अयुक्त है। हमारे कहे मुजब अब तू उनका ठीक अर्थ सुन । "विज्ञानघन " इस पद का क्या अर्थ है ? 'विज्ञान ज्ञान दर्शन का उपयोगात्मक विज्ञ आत्मा भी तन्मय होने से विज्ञानघन कहा जाता है । क्यों कि आत्मा के प्रत्येक प्रत्येक प्रदेश के प्रति ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं । अब वह विज्ञानघन उपयोगात्मक आत्मा कथंचित् भूतों से या भूतों के विकाररूप घटादि से उत्पन्न होता है । घटादिक ज्ञान से 1 इस रीचा का सार वह है मनुष्य जिस वस्तु को सामने देखता है उसमें उसका आत्मा तल्लीन हो जाता है, उस वस्तु को हटा लेने से मनुष्य का ख्याल दूसरी तरफ लग जाने से पहले का ज्ञान बदल कर दूसरी चीज का ज्ञान हो जाता है पहली संज्ञा नहीं रहती । For Private and Personal Use Only 400 500 40 5 40 या । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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