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हुआ छिद्र उसे डबो नहीं देता ? त्यों ही एक ईंट निकालने से सारा मकान गिर जाता है । इत्यादि विचार कर मस्तक पर द्वादश तिलक धारण कर, सुवर्ण के यज्ञपवीत के विभूषित हो, पीत वस्त्र पहन कर हाथ में पुस्तक धारण करने वाले बहुत से शिष्यों को साथ लेकर, तथा जिन के हाथ में कमंडलू हैं ऐसे शिष्यों से वेष्टित हो और जिनके हाथ में दर्भ के आसन हैं कितनेक ऐसे शिष्यों सहित इंद्रभूति वहां से प्रभु की ओर चलता है । उस वक्त उसके शिष्य उसकी प्रशंसा के नारे लगाते हुए चलते हैं कि हे सरस्वती कंठाभरण ! हे वादीविजयलक्ष्मी के शरण समान ! हे वादियों के मद को उतारनेवाले ! हे वादीरूप हाथियों के मदको उतारने वाले ! हे वादियों के ऐश्वर का नाश करनेवाले ! हे वादी रूप सिंहों को अष्टापद के समान ! हे वादियों के समूह के राजा ! हे वादियों के सिर पर काल समान ! हे वादीरूप केले को कृपाल के तुल्य ! हे वादीरूप अंधकार के प्रति सूर्य समान ! हे वादीरूप गंदम को पीसने में चक्को के समान ! हे वादीमदमर्दन करनेवाले !
* कवि की पद्य रचना दिखाने के लिये इस मूल पाठ नीचे दिया जाता है।
हे सरस्वतीकंठाभरण ! वांदिविजयलक्ष्मीशरण । वादिमदगंजन । वादिमुखभंजन ! वादिगजसिंह ! वादीश्वरलीह । वादिसिंह अष्ठापद ! वादिविजयविशाद ! वादिमदगंजन ! वादिवृंदभूमिपाल वादिशिरःकाल ! वादिकदलीकृपाल ! वादितमोभान ! वादिगोधूमघट्ट ! मर्दितवादिमरट्ट ! वादिघटमुद्रर ! वादिचूकभास्कर ! वादिसमुद्रागस्ति । वादितरून्मूलनहस्ति । वादिसुरसुरेन्द्र वादिगरूडगोविन्द वादिजनराजा ! वादिकंसकाहन् ! वादिहरिणहरे ! वादिजवरधन्वन्तरे ! वादियूथमल्ल । वादिहृदयशल्य वादिगणजीपक ! वादिशलभदीपक ! वादिचकचूडामणे ! पंडितशिरोमणे ! विजितनिकवाद ! सरस्वतीलब्धप्रसाद !
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