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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 40500405004050040 www.kobatirth.org फिर उसने प्रभु को वन्दन कर वापिस लौटते हुए मनुष्यों को हंसीपूर्वक पूछा- अरे लोगो ! तुमने उस सर्वज्ञ देखा? वह कैसा रूपवान् है ? उसका क्या रूवरूप है ? लोगों ने कहा कि “यदि त्रिलोकी गणनापरा स्या- त्तस्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारिपरार्द्ध गणितं यदि स्यान्द्रणेय निःशेषगुणोऽपि स स्यात् ।।1।। ' यदि तीन लोक के मनुष्य गिनने लगें, उनके आयु की समाप्ति न हो और यदि परार्ध से ऊपर गिनती हो जाय तो उस सर्वज्ञ के गुणों को गिन सकता है; अन्यथा नहीं। यह सुनकर इंद्रभूति विचारने लगा - सचमुच ही यह तो कोई महाधूर्त है, कपट का मंदिर है; अन्यथा इतने लोगों को भ्रम में नहीं डाल सकता । अब इस सर्वज्ञ को क्षणवार भी सहन नहीं कर सकता । अन्धकार के समूह को दूर करने के लिए सूर्य किसी की प्रतिक्षा नहीं कर सकता । अग्नि हाथ के स्पर्श को, क्षत्रिय शत्रु के आक्षेप को, सिंह अपनी केशावली पकड़नेवाले को कदापि सहन नहीं कर सकता। मैंने वादियों के बहुत से इंद्रों को बोलते बंद कर दिया है तो यह बेचारा घर में ही अपने को शूर माननेवाला मेरे सामने क्या चीज है ? जिस अग्नि ने बड़े बड़े पर्वतों को भस्म कर डाला उसके सामने वृक्ष क्या चीज है ? जिसने हाथियों को गिरा दिया ऐसे प्रचण्ड पवन के सामने रूई की पूनी क्या वस्तु है ? तथा मेरे भय से गौड़ देश में जन्मे हुए पंडित दूर देशों में भाग गये, तथा गुजरात के पंडित तो मेरे भय से जरजरित हो त्रासित हो गये हैं, मालव देश के पंडित तो नाम सुनकर ही मर गये, तैलंग देश के For Private and Personal Use Only 10500105004050040 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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