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Acharya Shri Kalassagarsun Gyarmandie
श्री कल्पसूत्र हिन्दी
छट्ठा
व्याख्यान
अनुवाद
118611
उस वक्त प्रभु को वन्दन करने के लिए आते हुए सुर और असुरों को देखकर वे ब्राह्मण विचारने लगे कि 35 अहो ! इस यज्ञ की महिमा कैसी है ? जहां पर साक्षात् देवता आ रहे हैं । परन्तु यज्ञमंडप तजकर उन्हें बाह्योद्यान में प्रभु की तरफ जाते देख उन्हें अत्यन्त खेद हआ । मनुष्यों से यह सुनकर कि वे सब सर्वज्ञ प्रभु को वन्दन करने
जा रहे हैं । इंद्रभूति क्रोधित हो विचारने लगा-मेरे सर्वज्ञ होते हुए क्या दूसरा भी कोई अपने आपको सर्वज्ञ * कहलाता है !!! कान से न सुनने योग्य ऐसा कटु वचन मुझ से कैसे सुना जाय ? कदाचित् कोई मूर्ख मनुष्य -* न तो धूर्त से ठगा जा सकता है परन्तु इसने तो देवताओं को भी ठग लिया है जो वे देव यज्ञमंडप और मुझ सर्वज्ञ
को छोड़कर वहां जा रहे हैं । देवो, तुम क्यों भ्रान्ति में पड़ गये; जो तीर्थजल को त्यागनेवाले कौवों के समान, ग्र तालाब को त्यागने वाले मेंडक के समान, चंदन को त्यागने वाली मक्खियों के समान, श्रेष्ठ वृक्ष को त्यागने वाले ऊंटों के समान, खीरान्न को त्यागने वाले सूअरों के समान और सूर्यप्रकाश को त्यागने वाले उल्लुओं के समान .. यज्ञ को त्याग कर वहां चले जा रहे हो ! अथवा जैसा वह सर्वज्ञ होगा वैसे ही ये देव हैं अतः समान ही योग - मिल गया है । कहा भी है कि भ्रमर आमवृक्ष के मौर पर गंजारव करता है और कौवे आतुर होकर नीम के मौर म पर जाते हैं । तथापि मैं उसके सर्वज्ञपन के आरोप को सहन न करूंगा । क्या आकाश में दो सूर्य रह सकते हैं ? या एक म्यान में दो तलवार रह सकती हैं ? इसी तरह मैं और वह दोनों सर्वज्ञ कैसे रह सकते हैं?
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