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(2) एक व्यापारी अपने पुत्र को हमेशा यह शिक्षा दिया करता था कि बेटा ! पिता आदि अपने गुरूजनों के सामने बोलना चाहिये। पिता की इस प्रशस्त शिक्षा को पुत्र ने वक्रतया मन में धारण कर रक्खा । एक दिन घर के सब मनुष्य बाहर गये थे । उसने अवसर देख कर विचारा कि सदैव शिक्षा देनेवाले पिता को आज में भी शिक्षा दूँ ! यह सोच कर वह मकान के भीतर की सांकल लगा कर घर में बैठ गया । पितादि के घर आने पर बहुत सी आवाजें देने से भी उसने अन्दर से सांकल न खोली तंग हो कर दीवार पर से कूद कर पिता ने अन्दर जाके देखा तो लड़का खिड़ खिड़ा कर हँस रहा है। धमकाने पर वह पिता से बोला-आपने ही तो मुझे शिक्षा दी हुई है. कि बड़ों के सामने न बोलना ? फिर मैं कैसे आपकी आज्ञा भंग करता ? इन दोनों दृष्टान्तों से श्रीवीर प्रभु के तीर्थवर्ती प्राणियों की वक्रता और जड़ता झलक आती है। अब श्री अजितनाथादि बाईस तीर्थकरों के ऋजु प्राज्ञ मुनियों के दृष्टांन्त देते हैं:
ऋजु -प्राज्ञ पर दृष्टांन्त
एक दिन किनतेक श्री अजितनाथ प्रभु के साधु मार्ग में नट का नाच देखकर देर से आये । देरी का कारण पूछने पर उन्होंने गुरू के सामने यथार्थ बात कह दी। गुरू ने नट नाच देखना निषेध किया। एक दिन वे दिशा जाकर वापिस उपाश्रय को लौट रहे थे। रास्ते मे एक नटनी नाच रही थी। उसे देख कर प्राज्ञ होने के कारण वे विचार करने लगे कि उस दिन गुरूजी ने राग पैदा होने में कारणभूत होने से नट का नाच
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