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________________ Shri Maharan Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shri Kalassagarsun Gyarmandie स रहे थे । उसी समय सौधर्मेद्र अपनी सभा में देवों से समक्ष प्रभु के धैर्यादि गुणों की प्रशंसा कर रहा था । इंद्र ने कहा-हे - देवों ! वर्तमान काल में मनुष्य लोक में श्री वर्धमान कुमार बालक होते हुए भी अबाल पराक्रमी अर्थात् महापराक्रमी है । .उसे इंद्रादि देव भी डराने के लिए समर्थ नहीं हो सकते ऐसा निडर है । यह सुनकर सभा में बैठे हुए एक मिथ्यादृष्टि देव. ने विचारा कि-अहो इंद्र को अपने स्वामीपन का कितना अभिमान है ! यह बिना विचारे कैसी गप्प मारता है । इंद्र की यह बात ऐसी ही है जैसे कोई कहे कि आकाश से एक रुई की पूणी पड़ी और उस से एक नगर दब गया । भला कहां देव और कहां एक मनुष्य ? मैं अभी जाकर उसे डराकर इंद्र के वचन को झूठा कर देता हूं । यह विचार कर उस देवने मनुष्य लोक में आकर मूसल के समान मोटे, चपल दो जीभ युक्त, भयंकर फुफार सहित, अत्यन्त क्रूर आकारधारी, विस्तृत, क्रोधी, विशाल फण युक्त और चमकते हुए मणिवाले क्रूर सर्प का रूप धारण कर उस वृक्ष को चारों ओर से ॐलपेट लिया, जिस पर चढ़ उतर कर के वे लड़के खेल रहे थे । उसे देख कर सारे ही कुमार भयभीत हो वहाँ से दूर भाग गये । श्री वर्धमान कुमार ने निर्भीक हो वहां जाकर उसे हाथ में पकड़कर दूर फेंक दिया । फिर सब कुमार वर्धमान के पास आकर गेंद का खेल खेलने लगे । वह देव भी कुमार का रूप धारण कर उन सब के बीच में खेलने लगा । उस खेल में शरत यह थी कि जो कुमार हार जाय वह जीतनेवाले कुमार को अपनी पीठ पर चढावे । अब वह देवकुमार जानबूझ * कर वर्धमान कुमार से हार गया । शरत के अनुसार वर्धमान कुमार को अपनी पीठ पर चढ़ा कर उस %機會換數! 擔 For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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