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2 हो । मैं देवों का स्वामी इंद्र हूं, स्वर्ग से यहां आया हूं और प्रभु का जन्मोत्सव करूंगा । इस लिए माता आप डरना नहीं
। यों कह कर इंद्र ने अवस्वापिनी निद्रा देदी और प्रभु का एक प्रतिबिम्ब बना कर माता के पास रख दिया । भगवन्त को अपने हस्तसंपुट में ले कर विशेष लाभ प्राप्त करने की भावना से इंद्र ने अपने पांच रूप बनाये । एक रूप से प्रभु को ग्रहण किया. दो रूपों से प्रभु के दो तरफ चामर बीजने लगा, एक रूप से छत्र धारण किया और एक रूप से वज धारण किय।
अब देवों में आगे चलनेवाले पिछलों को धन्य मानते हैं और प्रभु का दर्शन करने के लिए अपने नेत्र पिछली तरफ चाहते हैं । इस प्रकार इंद्र मेरुपर्वत पर जाकर उसके शिखर के दक्षिण भाग में रहे हुए पाण्डुक वन में पाण्डुशिला पर 10
प्रभु को गोद में लेकर पूर्वदिशा तरफ मुख कर के बैठ जाता है । उस समय तमाम इंद्र प्रभु के चरणों मे उपस्थित हो स जाते हैं । दश वैमानिक, बीस भुवनपति, बत्तीस व्यन्तर और दो ज्योतिष्क एवं चौंसठ इंद्र उपस्थित हो गये । सुवर्ण
के, चांदी के, रत्नों के, सोने चांदी के, सुवर्णरत्नों के, चांदी और रत्नों के, सोने चांदी और रत्नों के तथा मिट्टी के ऐसे आठ जाति के प्रत्येक के एक हजार और आठ एक योजन प्रमाण मुखवाले कलशे (पच्चीस योजन ऊंचे, बारह योजन चौड़े और एक योजन नालवाले ये, सब इंद्रों के एक करोड़ और साठ लाख कलशे होते हैं) तथा इसी प्रकार पुष्प
चंगेरी, भृगार, दर्पण, रत्नकरण्डक, सुप्रतिष्ठक, थालादि पूजा के उपकरण प्रत्येक कलशो के समान एक * हजार आठ प्रमाणवाले समझने चाहिए । तथा मागध आदि तीर्थों की मिट्टी, गंगादि का जल, पद्मसरोवरादि
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