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श्री कल्पसूत्र
पांचवा
हिन्दी
व्याख्यान
अनुवाद
1155।।
का पानी तथा कमल, क्षुल्लहिमवन्त, वर्षधर, वैताढय, विजय तथा वक्षस्कारादि पर्वतों से सरसों के पुष्प, सुगंधी पदार्थ आदि सर्व प्रकार की औषधियों को अच्युतेंद्र मंगवाता है । क्षीरसमुद्र से जल भरे घड़े छाती से लगाये हुए आते समय देवता ऐसे शोभते थे मानो संसारसमुद्र को पार करने के लिए ही घड़े छाती से लगाये हों । भावरूप वृक्ष को सींच कर - उन्होंने अपनी आत्मा का मैल धो लिया ।
उस समय इंद्र के संशय को जानकर वीरप्रभु ने दाहिने अंगूठे से चारों ओर से मेरुपर्वत को कंपायमान किया । जिससे हपृथ्वी पूजने लगी, शिखर गिरने लगे और समुद्र भी क्षोभायमान हो गया । ब्रह्माण्ड को फोड़ डालें ऐसे शब्द होने पर क्रोटि
त होकर इंद्र ने अवधि ज्ञान से जानकर प्रभु से क्षमा मांगी । असंख्य तीर्थंकरों में से मुझे आज तक किसी ने भी अपने पैर
से स्पर्श नहीं किया किन्तु प्रभु वीर ने स्पर्श किया इस कारण मानो हर्ष के मारे मेरू पर्वत नाचने लगा । उसने विचार किया * कि-इस स्नात्रजल के अभिषेक से झरते हुए समस्त झरने रूप मैंने हार पहने हैं तथा जिनेश्वर रूपी मुकुट कर मैं आज सब पर्वतों का राजा बना हूं । अब स्नात्र उत्सव के लिए इंद्र ने सब को आदेश दिया-प्रथम अच्युतेंद्र ने प्रभु का अभिषेक कराया
फिर अनुक्रम से बड़े से छोटों ने और अन्त में सूर्य और चंद्र ने अभिषेक कराया । वहां पर कवि घटना का वर्णन करता है कि स्नात्र महोत्सव के समय अन्तिम तीर्थकर के मस्तक पर श्वेत छत्र के समान शोभता हुआ, मुख पर चंद्रकिरणों के समूह समान शोभता हुआ, कंठ में हार के समान शोभता हुआ, समस्त शरीर पर चीनीचोले के समान शोभता हुआ इंद्रो
警营听听
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