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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir श्री कल्पसूत्र हिन्दी चौथा व्याख्यान अनुवाद 114711 ॐ वृक्ष नहीं ऊगता, त्यों पुण्य रहित प्यासे मनुष्य को अमृत की सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती । अरे ! सदैव प्रतिकूल रहनेवाले दैव को भी धिक्कार है । हे वक्र दुर्दैव ! तूने यह क्या किया ? मेरे मनोरथरूपी वृक्ष को जड़ से ही उखाड़ फेंका? कलंक M रहित मुझे नेत्रयुग्म दे कर छीन लिया ! इस पापी देव ने निधि रत्न दे कर मुझ से छीन लिया ? इस दुर्दैव ने मुझे मेरू पर्वत के शिखर पर चढ़ा कर नीच' पटक दिया ! तथा इस निर्लज्जने भोजन का भाजन परोस कर वापिस बैंच लिया । हे विधाता ! मैंने भवान्तर में या भव में ऐसा क्या अपराध किया है ? जिस से तू ऐसा करते हुए उचित अनुचित का विचार नहीं करता ! अब मैं क्या करूं ! कहां जाउं ? किस से कहूं ! हां इस दुर्दैवने मुझे भस्म कर दी, मूछित कर दी । अब मुझे इस राज्य की क्या जरूरत है ? अब विषयजन्य कृत्रिम सुखों से मुझे क्या लाभ ? अब इन गगनस्पर्शीमहलों और दुकूल शय्या के सुखों में क्या रक्खा हैं ? हाथी, वृषभादि स्वप्नों से सूचित हुए पवित्र, तीन जगत के पूजनीक पुत्र के बिना अब मुझे किसी भी चीज की क्या जरूरत है ? इस असार संसार को धिक्कार है और दुःख से सने हुए इन विषय सुख के कलशों को भी धिक्कार है ! तथा सहत से लिप्त हुई खड़ग (तलवार) की धारा को चाटने के समान संसार के लाडों को भी धिक्कार है । ऋषियों ने जो धर्मशास्त्रों में कथन किया है वैसा कुछ भी पूर्व भव में मैंने दुष्कर्म किया होगा | पशु पक्षियों या मनुष्य के बालकों का उनकी माताओं से वियोग कराया होगा । अथवा मैंने अधर्म बुद्धिवाली ने * छोटे-छोटे बछड़ों को उनकी माता से वियोग कराया होगा ! या उन्हें दूध पीने का अन्तराय किया या कराया .. 00000000005 For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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