________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कुमारसंभव
599
क्रन्द 1. क्रन्द :-क्रन्दन करना, रोना, विलाप करना।
परस्परा क्रन्दिनि चक्रवाकयोः पुरो वियुक्ते मिथुने कृपावती। 5/26 चकवे और चकवी का जो जोड़ा एक दूसरे से बिछुड़ा हुआ चिल्लाया करता था, उन्हें वे ढाढ़स बंधाया करती थीं। दष्टतामरकेसरस्रजोः क्रन्दतोर्विपरिवृत्तकण्ठयोः। 8/32 फूले हुए कमलों की केसर चोंच में उठाकर ये चकवे-चकवी एक-दूसरे के
कंठ से अलग होकर चिल्लाने लगे हैं। 2. रुद :- क्रंदन करना, रोना, विलाप करना।
विरुतैः करुण स्वनैरियं गुरुशोकामनुरोदितीव माम्।।4/15 मानो वे भी मुझ दुःख में बिलखती हुई के साथ-साथ रो रही हों। तमवेश्य रुरोद सा भृशं स्तन संबांधमुरो जघान च। 4/16 वसन्त को देखकर वह और भी फूट-फूटकर और छाती पीट-पीट कर रोने लगी।
क्षपा
1. क्षपा :-[क्षप्+अच्+टाप्] रात, हल्दी।
व्यलोक यन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयैर्महातपः साक्ष्य इव स्थिताः क्षपः। 5/25 वे अँधेरी रातें अपनी बिजली की आँखें खोल-खोल कर इस प्रकार उन्हें देखा
करती थीं, मानो वे उनके कठोर तप की साक्षी हों। 2. त्रियामा :-रात्रि।
सा संभवद्भिः कुसुमैलतेव ज्योतिर्भिरुद्यद्भिरिव त्रियामा। 7/21 जैसे फूल आ जाने पर लताएँ स्वयं खिल उठती हैं या जैसे तारे निकलने पर रात जगमगाने लगती है। क्षीरो दवेलेव सफेनपुञ्जा पर्याप्त चन्द्रव शरत्रियामा। 7/26 मानो वे शरद ऋतु की पर्यापत चाँदनी वाली रात में क्षीर समुद्र की उतराते हुए
फेन वाली लहर हों। 3. नक्त :-रात, रात्रि।
For Private And Personal Use Only