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रघुवंश
आचभ्योदीरयामास सीता सत्यां सरस्वतीम्। 15/80 उसका आचमन करके सीताजी ने यह वचन कहा। सा सीतामङ्कमारोप्य भर्तृप्रणिहितेक्षणाम्। 15/84 उन्होंने उन सीताजी को अपनी गोद में ले लिया, जो राम की ओर टकटकी बाँधे
थीं।
धरायां तस्य संरम्भं सीताप्रत्यर्पणैषिणः। 15/85 राम को पृथ्वी पर बड़ा क्रोध आया और पृथ्वी से सीता को लौटा लेने के लिए। रामः सीतागतं स्नेहं निदधे तदपत्ययोः। 15/86 अब राम अपने पुत्रों से उतना ही प्रेम करने लगे, जितना सीताजी से करते थे।
सुख 1. शर्म :- (पुं०) [शृ + मनिन्] प्रसन्नता, आनन्द, खुशी।
संततिः शुद्धवंश्या हि परत्रेह च शर्मणे। 1/69 अच्छी संतान सेवा-सुश्रूषा करके इस लोक में तो सुख देती ही है, साथ ही
परलोक में भी सुख देती है। 2. सुख :-[सुख + अच्] प्रसन्न, आनन्दित, हर्षपूर्ण, खुश, रुचिकर, मधुर,
मनोहर, सुहावना। अगृनुराददे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत्। 1/21 लोभ छोड़कर धन इकट्ठा करते थे और मोह छोड़कर संसार के सुख भोगते थे। सेव्यमानौ सुखस्पर्शः शालनिर्यास गन्धिभिः। 1/38 वन के वृक्षों की पाँतों को धीरे-धीरे कँपाता हुआ पवन, उनके शरीर को सुख देता हुआ, उनकी सेवा करता चल रहा था। लोकान्तरसुखं पुण्यं तपोदान समुद्भवम्। 1/69 तपस्या करने से और ब्राह्मणों तथा दीनों को दान देने से जो पुण्य मिलता है, वह केवल परलोक में सुख देता है। ययावनुद्धात सुखेन मार्ग स्वेनेव पूर्णेन मनोरथेन। 2/72 उस पर सुख से चढ़कर जाते हुए वे ऐसे लगते थे, मानो वे अपने सफल मनोरथ पर बैठे हुए जा रहे हों, रथ पर नहीं। वक्षस्य संघट्टसुखं वसन्ती रेजे सपत्नीरहितेव लक्ष्मीः। 14/86
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