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रघुवंश
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13. समुद्र :-[सह मुद्रया-ब०स०, सम्+उद्+रा+क] सागर, महासागर।
आसमुद्रक्षती शाना मानाकरथवर्त्मनाम्। 1/5 जिनका राज्य समुद्र के ओर-छोर तक फैला हुआ था, जिनके रथ पृथ्वी से सीधे स्वर्ग तक आया-जाया करते थे। पयोधरीभूत चतुःसमुद्रां जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। 2/3 मानो साक्षात् पृथ्वी ने ही गौ का रूप धारण कर लिया हो और जिसके चारों थन ही पृथ्वी के चार समुद्र हो। लिपेर्यथावद्ग्रहणेन वाङ्मयं नदी मुखेनेव समुद्रमाविशत्। 3/28 पहले वर्णमाला लिखना-पढ़ना सीखा और फिर साहित्य का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया मानो नदी के मुहाने से होकर समुद्र में पैठ गए हों। यथा वायुविभावस्वोर्यथा चंद्रसमुद्रयोः। 10/82 जैसे वायु और अग्नि का तथा चंद्रमा और समुद्र का जोड़ा कभी अलग नहीं होता। आभाति भूयिष्ठमयं समुद्रः प्रमथ्यमानो गिरिणेव भूयः। 13/14 इस समय यह समुद्र ऐसा जान पड़ रहा है, मानो मंदराचल फिर इसे मथ रहा हो। एषा विदूरी भवतः समुद्रात्सकाननां निष्पततीव भूमिः। 13/18 दूर निकल आने से यह जंगलों से भरी हुई भूमि ऐसी दिखाई पड़ रही है, मानो समुद्र में से अभी अचानक निकल पड़ी हो। सरित्समुद्रान्सरसीश्च गत्वा रक्षः कपीन्द्रैरुपपादितानि। 14/8 राक्षसों और वानरों के नायकों ने नदियों, समुद्रों और तालों से जो जल लाकर दिया। ददौ दत्तं समुद्रेण पीतेनेवात्मनिष्क्रयम्। 15/55 उन्हें समुद्र ने उस समय दण्ड के रूप में दिए थे, जब उन्होंने समुद्र को पी डाला था। समुद्ररसना साक्षात्प्रादुरासीद्वसुंधरा। 15/83 समुद्र की तगड़ी पहने साक्षात् धरती माता प्रकट हुईं। तस्मात्समुद्रादिव मथ्य मानादुवृत्तनक्रात्सहसोन्ममज्ज। 16/79 उस जल को समुद्र के समान मथा जाता देखकर घड़ियाल आदि जीव घबरा उठे।
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