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रघुवंश
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लक्ष्मी को जो चंचलता का दोष लगाया जाता था पर उनका वह दोष भी तब से धुल गया, जब से वह इनके साथ रहने लगी। श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरितमेखले। 10/8 उन्हीं के पास कमल पर लक्ष्मी बैठी हुई थीं, जिनकी कमर में रेशमी वस्त्र पड़ा हुआ था। शान्ते पितर्याहृत पुण्डरीका यं पुण्डरीकाक्षमिव श्रिता श्रीः। 18/8 पिता के स्वर्ग चले जाने पर कमल धारण करने वाली लक्ष्मी ने पुण्डरीक की ही विष्णु मानकर वर लिया।
लज्जा
1. लज्जा :-[लज्ज् + अ + टाप्] शर्म।
स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां गुरोर्भवान्दर्शित शिष्य भक्तिः। 2/40 इसलिए अब तुम लाज छोड़कर घर लौट जाओ, तुमने यह तो दिखला ही दिया है कि तुम अपने गुरु के बड़े भक्त हो। ततः सुनन्दा वचनावसाने लज्जां तनूकृत्य नरेन्द्र कन्या। 6/80 जब सुनंदा कह चुकी, तब इन्दुमती ने संकोच छोड़कर। चकार सा मत्तचकोर नेत्रा लज्जावती लाजाविसर्गमग्नौ। 7/25 मत्त चकोर के समान आँखों वाली, लजीली इन्दुमती ने धान की खीलें छोडीं। प्रणयिनीव नखक्षतमण्डनं प्रमदया मदयापितलज्जया। 9/31 मानो काम के आवेश में लाज छोड़कर किसी कामिनी ने अपने प्रियतम के शरीर पर नख-क्षत कर दिए हों। तच्चिन्त्यमानं सुकृतं तवेति जहार लज्जां भरतस्य मातुः। 14/16 यह सुनकर कैकेयी के मन में जो आत्मग्लानि लज्जा भरी हुई थी, वह सब जाती
रही। 2. व्रीडा :-[व्रीड् + घञ् + टाप्, व्रीड् + अ + टाप्] लज्जा।
वीडमावहति मे ससंप्रति व्यस्तवृत्ति रुदयोन्मुखे त्वयि। 11/73 ज्यों-ज्यों तुम ऊँचे चढ़ते चले जा रहे हो, त्यों-त्यों वह अर्थ तुम्हारे नाम के साथ लगता जा रहा है, यह सब देखकर मुझे लज्जा लगने लगती है। शुशुभे विक्रमोदग्रं व्रीडयावनतं शिरः। 15/27
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