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रघुवंश
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उनके वियोग में राजा दशरथ को बड़ा दुःख हुआ, उन्हें मुनि का शाप स्मरण हो
आया ।
राज्ञः शिवं सावरजस्य भूयादित्या शशंसे करणैरबाह्यैः । 14/50 वे मन ही मन मनाने लगीं कि भाइयों के साथ राजा सुख से रहें, उन पर कोई आँच न आए।
वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम् । 14/61
राजा से जाकर तुम मेरी ओर से कहना कि आपने अपने सामने ही मुझे अग्नि में शुद्ध पाया था।
स पृष्टः सर्वतो वार्तमाख्यद्राज्ञेन संततिम् । 15/41
राजा राम के पूछने पर उन्होंने सब बातें तो कह सुनाई, पर पुत्र होने की बात नहीं कही ।
राजन्प्रजासु ते कश्चिपचारः प्रवर्तते । 15/47
हे राजन्! आपकी प्रजा में कुछ वर्ण-धर्म संबंधी दोष आ गया है।
पृष्टनामान्वयो राज्ञा स किलाचष्ट धूमपः । 15 / 50
राजा ने उससे पूछा :- आपका नाम क्या है और आप किस वंश के हैं। कृतदण्डः स्वयं राज्ञा लेभे शूद्रः सतां गतिम् । 15 / 53
राजा से दंड पाने के कारण शूद्र को वह सद्गति मिल गई। इति राज्ञा स्वयं पृष्टौ तौ वाल्मीकिमशंसताम् । 15 / 69 जब राम ने उनसे पूछा तो उन्होंने वाल्मीकि का नाम बता दिया ।
इति प्रतिरुते राज्ञा जानकीमाश्रमान्मुनिः । 15/74
राजा राम की ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर वाल्मीकिजी ने सीताजी को इस प्रकार बुलाया ।
तस्याः पुरः संप्रति वीतनाथां जानीहि राजन्नधिदेवतां माम् । 16 / 9 हे राजन् ! उसी अनाथ अयोध्या पुरी के निवासियों की मैं नगर देवी हूँ । अथोपशल्ये रिपुमग्न शल्यस्तस्याः पुरः पौरसखः स राजा । 16/37 शत्रुविनाशक प्रजा हितैषी राजा ने अपनी सेना को नगर के आसपास के स्थानों में ठहरा दिया।
न तस्य मंडले राज्ञोन्यस्तप्रणिधि दीधितेः । 17/48
वैसे ही राजा अतिथि ने दूतों का ऐसा जाल बिछा दिया, कि प्रजा की कोई बात उनसे छिपी नहीं रह पाती थी ।
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