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कालिदास पर्याय कोश
प्रतापोऽग्रे ततः शब्दः परागस्तदनन्तरम् । 4 / 30
इस प्रकार आगे-आगे उनका प्रताप चलता था, पीछे उनकी सेना का कोलाहल सुनाई पड़ता था, तब धूल उड़ती दिखाई देती थी ।
2. पांसु : - [पंस् (श्) + कु, दीर्घः ] धूल, गर्द,
चूरा ।
तस्याः खुरन्यासपवित्र पांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया । 2/2
नंदिनी चली जा रही थी और उसके खुरों से उड़ी हुई धूल मार्ग को पवित्र करती जा रही थी ।
3. रज : - (पुं०) [रज् + असुन्, न लोप: ] धूल, रेणु, गर्द ।
रजोभिस्तुरगोत्कीर्णैरस्पृष्टालक वेष्टनौ । 1/42
घोड़ों के खुरों से उठी हुई धूल न तो देवी सुदक्षिणा के बालों को छू पाती थी और न राजा दिलीप की पगड़ी को ।
रजः कणैः खुरोद्भूतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात्। 1 / 85
नंदिनी के आते समय उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के लगने से राजा दिलीप वैसे ही पवित्र हो गए।
रजोभिः स्यन्दनोद्धूतैर्गजैश्च घनसंनिभैः । 4/29
रघु के रथों के चलने से जो धूल ऊपर उड़ी, उसने आकाश को पृथ्वी बना दिया । सेना के काले-काले हाथी बादल जैसे लग रहे थे ।
मुरलामारुतोद्धूतमगमत्कैतकं रजः । 4/55
मुरला नदी की ओर से आने वाले वायु के कारण जो केवड़े के फूलों की धूल उड़ रही थी ।
शार्ङ्गकूजित विज्ञेय प्रतियोधे रजस्यभूत् । 4/62
सेना के चलने से इतनी धूल उड़ी कि केवल धनुष की टंकार से ही सैनिक लोग शत्रु को पहचान पाते थे ।
रजो विश्रामयन्राज्ञां छत्रशून्येषु मौलिषु । 4 / 85
उठी हुई धूल पीछे-पीछे चलने वाले हारे हुए राजाओं के छत्र-रहित मुकुटों पर बैठती चलती थी।
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निवेशयामास विलंघिताध्वा क्लान्तं रजोधूसर केतु सैन्यम् । 5/42 अपनी उस थकी हुई सेना का पड़ाव डाला, जिसकी पताकाएँ मार्ग की धूल लगने से मटमैली हो गई थीं।