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कालिदास पर्याय कोश
अवोचदेनं गगनस्पृशा रघुः स्वरेण धीरेण निवर्तयन्निव । 3/43
बस रघु ने समझ लिया कि हो न हो ये इन्द्र ही हैं और ऊँचे गंभीर स्वर से इस प्रकार इन्द्र से बोले, मानो उन्हें लौटने को ललकार रहे हों । इति प्रगल्भं रघुणा समीरितं वचो निशम्याधिपतिर्दिवौकसाम् । 3/47 के अभिमान भरे इन वचनों को सुनकर इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ । रघुः शशांकार्धमुखेन पत्रिणा शरासन ज्यामलुनाद्विडौजसः । 3/59 तब रघु ने अर्द्ध चन्द्र के आकार के बाण से इन्द्र की ठीक कलाई के पास धनुष की वह डोरी काट डाली।
रघु
रघुर्भृशं वक्षसि तेन ताडितः पपात भूमौ सह सैनिकाश्रुभिः । 3/61
उस वज्र की मार से रघु पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके गिरते ही उनके सैनिकों ने रोना पीटना आरंभ कर दिया।
वार्षिकं संजहारेन्द्रो धनुजैत्रं रघुर्दधौ । 4/16
इन्द्र ने जब अपना वर्षा ऋतु वाला इन्द्रधनुष हटाया, तब रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठा लिया ।
रघोरभिभवावशंकि चुक्षुभे द्विषतां मनः । 4/21
उधर शत्रुओं के मन में यह जानकर खलबली मच गई कि अब न जाने कब रघु चढ़ाई कर बैठे।
आपादपद्मप्रणाताः कलमा इव ते रघुम् । 4/37
वैसे ही रघु ने उन राजाओं को फिर राज पर बैठा दिया, जो उनके पैरों पर आकर गिर पड़े थे।
तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न विषेहिरे । 4/49
पर रघु का तेज इतना प्रबल था कि वहाँ के पाँड्य राजा भी इनके आगे न ठहर
सके।
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उपरान्त महीपाल व्याजेन रघवे करम् । 4/58
पश्चिम के राजाओं ने जो रघु के अधीन होकर उन्हें कर दिया था वह मानो ।
ततः प्रतस्थे कौवेरीं भास्वानिव रघुर्दिशम् । 4/66
जैसे सूर्य उत्तर की ओर घूम जाता है, वैसे ही रघु भी उत्तर के राजाओं को जीतने के लिए उधर घूम पड़े।
कपोल पाटला देशि बभूव रघुचेष्टितम् । 4/68