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रघुवंश 2. जात्य :-[जाति+यत्] उत्मकुलोद्भव, कुलीन, सत्कुलोत्पन्न।
जात्यस्तेना भिजातेन शूरः शौर्यवता कुशः। 17/4 अतिथि भी कुश के समान ही कुलीन, शूर और जितेन्द्रिय थे।
अभी
1. अभी :-निर्भय, निडर। व्याघ्रान भीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यः फुल्लासनानविटपानिव वायुरुग्णान्।
9/63 उन सिंहों के खले हए मुँह उनके बाणों के तूणीर बन गए और वे ऐसे जान पड़ने लगे जैसे आँधी से उखड़े हुए फूले आसन के पेड़ की फुनगियाँ हो । ययौ वनस्थली: पश्यन्पुष्पिता: सुरभीरभीः। 15/8
वे सुगंधित वनों की छटा निहारते हुए निर्भय चल पड़े। 2. वीतभय :-[ति+ई+क्त+ भय] निर्भय, निडर।
तपस्विसंसर्ग विनीत सत्त्वे तपोवने वीत्भया वसास्मिन्। 14/75 देखो तपस्वियों के साथ रहते-रहते यहाँ के सब जीव बड़े सीधे हो गए हैं, इसी आश्रम में तुम भी निर्भय होकर रहो।
अमृत
1. अमृत :-अमरता, अमृत, सुधा, पीयूष।
उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृताय मानं वचो निशोम्योत्थित मुत्थितः सन्। 2/61 इसी बीच अमृत के समान मीठे वचन सुनाई दिए-उठो बेटा। राजा दिलीप ने सिर उठाया। जनाय शुद्धांत चराय शंसते कुमार जन्मामृत संमिताक्षरम्। 3/16 झट अंत:पुर के सेवक के राजा दिलीप के पास आकर पुत्र होने का अमृत समाचार सुनाया। तमंकमारोप्य शरीर योगजैः सुखैर्निषिंचंतं भिवामृतं त्वचि। 3/26 जब राजा उसे गोद में उठाते तब उसके शरीर को छूने से ही उन्हें जान पड़ता था मानो उनके शरीर पर अमृत की फुहारें बरस रही हों। विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया। 8/46
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