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रघुवंश
पानी की फुहारों से भीगी हुई शिलाजीत की गंध वाली पत्थर की पाटियों पर बैठकर ।
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विहर्तुमिच्छा वनितासखस्य तस्यांभसि ग्रीष्मसुखे बभूव । 16/54 गर्मी में सुख देने वाले सरयू के जल में अपनी रानियों के साथ विहार करें। 3. अप : - [ आप्+क्विय् + ह्रस्वश्च ] पानी |
निषण्णायां निषीदास्यां पीताम्भसिपिबेरपः । 1 /89
जब बैठे तब तुम भी बैठ जाना और जब यह पानी पीने लगे, तभी तुम भी पानी पीना ।
कौस्तुभारव्यमपां सारं विभ्राणं बृहतोरसा । 10/10 उनके चौड़े वक्षस्थल पर वह कौस्तुभमणि चमक रहा था । आविर्भूतमपां मध्ये पारिजातमिवा परम् । 10/11 मानो समुद्र में एक दूसरा कल्पवृक्ष निकल आया हो । उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव । 10/65 जैसे निर्मल जल में चंद्रमा के बहुत से प्रतिबिंब पड़ जाते हैं। तस्यापतन्मूर्ध्नि जलानि जिष्णोर्विध्यस्य मेथप्रभवा इवाप: । 14/4
राम के सिर पर वैसे ही बरस रहा था जैसे विंध्याचल की चोटी पर बादलों का लाया हुआ जल बरसा करता है ।
पौरेषु सोऽहं बाहुली भवन्तमपां तरंगेष्विव तैलबिंदुम् । 14/38
जैसे पानी की लहरों के ऊपर तेल की बूँद फैल जाती है, वैसे ही इस समय घर-घर मेरी निंदा फैल रही है।
पुरं नवीचकुरपां विसर्गान्मेघा विदाघग्लपितामिवोर्वीम् । 16/38
जैसे इंद्र की आज्ञा से बादल, जल बरसाकर गरमी से तपी हुई पृथ्वी को हरी भरी कर देते हैं, वैसे ही अयोध्या का कायापलट कर दिया।
स नौविमानादवतीर्य रेमे विलोलहारः सह ताभिरप्सु । 16 / 68
यह कहकर कुश भी पानी में उतर पड़े और उन स्त्रियों के साथ जल-विहार करने लगे ।
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4. उदक : - [ उन्द् + ण्वुल् नि० नलोपः ] पानी ।
बभुः पिबन्तः परमार्थमत्स्याः पर्याविलानीव नवोदकानि । 7/40 उनमें जब धूल घुस रही थीं, तब वे ऐसी जान पड़ती थीं, मानो वर्षा का गंदला पानी पीती हुई सच्ची मछलियाँ हों ।