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॥वि० स्था० पू०॥
(१७)
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दुविध समाधि दुरित तसु नसियो मे० ॥४॥ सुमति पंच त्रिण गुपति धरें नित । सुरगिर वरनों धीरज करसियो ॥ जगत जंतु शघ त पति हरन कुं शुनुन्नव अमृत धार वरसियो मे० ॥५॥ ध्यान अनल करमें धन दाहत जिनसे पर गुण परिणत खिसियो ॥ ये मुनि तरणि तेजसम दीपत । अमृत सुखामृत पान तिरसियो मे० ॥६॥ इन पदमें जैसे मुनि जन के समरन तें। ऊये जग अवतं सियो ॥ ये पद सेवी नृपति पुरंदर नये ज गपति जिन हरख उलसियो मे० ॥७॥
॥ काव्य ॥ सबिंदिया पारविकारदारी।शकारणासेस जणोवगारी॥ महानयातंकगणापहारी।जयो सदा शछ चरित्त धारी ॥८॥ झी श्री नमश्चारित्र धारेज्यः ॥ इति सप्तदश पदे समाधि पूजा १७॥
॥दोहा॥ श्रुत अपूर्व ग्रहिवो सदा। शष्ठादश पद मांहि ॥ इण पद सेवक जन तणा । सऊ संकट जय जाहि ॥१॥ जेती कुमति निशु
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