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॥ वि० स्था० पू०॥
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॥दोहा॥ सतरम पद में सेविये । सक सुख करण समाधि ॥ जिन सेवन ते नविक नों। गमें व्याधि शुरु आधि ॥१॥ ब्रम्ह नगर पति विचरतां। बरपाथेय समान॥ ए समाधि पद जानिये । सुरमणि कियेहै रांन ॥२॥ ॥ रागकहरवा बाजै तेरा बिबुआ रे वा० ॥
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मेरो रे समाधि चरण चित बसियो । तसु गुण समरण कियो मनु बसियो मे० ॥ सकल जगत जन जिनकं स्तवतु हैं । अनु नव रंगे अतिहि विकसियो मे०॥१॥ द्रव्य तनावत दुबिधि समाधि। सुरतरु मार्नु नित लुवन विलसियो ॥ शसन वसन सलिला दिक नक्ति । करय संघनी कसणा रसियो॥ मे० ॥ २॥ दव्य समाधि प्रथम ये सुनियें। कह्यो जिन लोकालोक दरसियो ॥ सारण वारण चोयण प्रमुखें । पतित सुधिर करै धूम में हरसियो मे० ॥ ३ ॥ नाव समाधि ठितीय ये कहिये। जो करै सो जिन चरण फरसियो ॥ सकल संघ कों जो उपजावत ।
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