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॥वि० स्था० पू०॥
(१६)
विजवें जिनअवतारी से० ॥ ३॥ जिनमंदि र बिंबकरयनरावें। पूजकरें मनुहारी ॥ वेया वचकहीये जिनकी । करिये नवजलतारी से० ४॥ याचारिज परमुख नवपदकी । वेयाव च विजितारी ॥ नक्तिपूर्व वस्त्रौषध अनजल देवें गुणविस्तारी से० ॥ ५॥ पंचसय मुनि नीकरीय वेयावच । पूरबनव व्रतचारी ॥न रतबाऊबलि चक्रीपदनुज । बललयो वरीशि वनारी से० ॥ ६ ॥ नंदिषेण मुलसामुनि जि नकी करीय वेयावचसारी ॥ तिनसे स्वर्गलोक में दुयकी। नईय प्रशंसानारी से०॥७॥ इत्या दिक सोलमपद उधरे । बझालनच्य कमजा री॥ तिनसें इन वेयावचपद की । वारीजा उं वारहजारी से०॥ ८॥ नृपजीमूत केतुर सोलमपद । सेवीलये दुखवारी ॥ श्रीजिनह र्षधरी हरिवंदित। शरणागत निसतारी से०
॥काव्य ॥ मणुस सवातिसया सयाणं । सुरा सुराधी सर वंदियाणं ॥ रवींदु बिंबामल सग्गुणाणं । दयाधणाणंहि नमोजिणाणं ॥ १ ॥ हाजिने ज्योनमः ॥ इति षोफापदे वेयावृत्य पूजा ॥
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