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॥ विं० स्था० पू० ॥
पंचम चरणधरें वलि वरतें । क्षीणमोह गुण ठाणाहोनवि प० ॥ ४ ॥ रतनपात्र समते स र्वोत्तम । पात्रका जिननाना हो जवि प० प्रवरनाण किरियाधर मुनिवर । लाजालान समाना हो जवि प० ॥ ५ ॥ तेकांचन नाज न समकहिये । नवजल तारन याना हो नवि प० ॥ सुधमन द्वादशव्रत दरवान घर | तार पात्र समजाना हो जवि प० ॥ ६ ॥ शुध स मकित धरश्रेणिक परमुख । रह्या विरति गुणठाणा हो जवि प० ॥ ताम्रपात्र समएहनें कहीयें । जावी गुणमणि खाना हो जवि प० ७ ॥ पर सकलजन मिथ्यादृष्टी । लोहादि पात्र गिनाना हो नवि प० ॥ जिनशासन रंगें रंगाना | वाचंयम सुप्रमाना हो नवि प०८ एहनें दान दियांशिव लहिये । एहसुपात्र प हिचाना होजवि प० ॥ पंचदान दशदान नि करमें । यसुपात्र महिराना होनवि प० ९ ॥ नरवाहन शुनपादानते । नयेजिन ह रष निधाना होजवि प० ॥ सालिन वलि सुर सुखलहियो । सुरनर करय वखाना हो ज विपढ़ ॥ १० ॥
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